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________________ 396 Homage to Vaisali हम पृथ्वी के बाहर अनन्त आकाश में स्थित पिंडों की बात सोच रहे हैं। पहुँच भी जायेंगे, इसमें संदेह नहीं प्रतीत होता, परन्तु जहाँ जायेंगे अपने राग और द्वेष, अपनी तृष्णा को, लेकर जायेंगे / जो बस्तियां वहाँ बसेंगी, उनमें वही पाठ पढ़ाया जायेगा, जो हम यहां पढ़ रहे है / वहाँ की भूमि भी हमारे रक्त से रंगी जायेगी। वैशाली ऐसी जगहों की रक्षा करना तो ठीक ही है जहां पूर्वजों के संस्मरण हैं, स्मारक हैं। भग्नावशेष नष्ट न हो जायं, उनकी रक्षा करना स्तुत्य है। परन्तु मेरी समझ में हमारा सबसे बड़ा कार्य यह है कि उन बातों को अपने हृदयों में अवतरित करें जिनका संदेश आज भी यह खंडहर देते हैं। संसार को आज भी, सन्द पूछिये तो, आज सबसे अधिक उस संदेश की आवश्यकता है। भौतिक विज्ञान की सहायता से मानव ने प्रकृति पर जो विजय पाई है उसने उसे उन्मत्त कर दिया है। यह उन्माद उसको ले डूबेगा यदि वह उस चिरन्तन, उस शाश्वत, तथ्य को भूल गया जिसकी ओर देश, काल, पात्र के अनुसार भिन्न-भिन्न भाषाओं में महापुरुषों ने संकेत किया था। वह सत्य, वह उपदेश, सनातन है परन्तु उसको आजकल के मानव के सामने उस भाषा में रखना होगा जो उसको अभ्यस्त है। उसकी उन शंकाओं का निराकरण करना होगा जो आज उसको क्षुब्ध कर रही हैं। वैशाली के उत्सव की सार्थकता इस बात में है कि इस नगर में पुनः ऐसे विचारों का प्रसार हो जो जगत को सच्ची शांति की ओर ले जायें, मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने में सहायक हों / सत्य देशकाल की परिधि के बाहर होता है। आज विज्ञान जो कुछ बतलाता है, वह मनुष्य की बहुमूल्य सम्पत्ति है। उसका समन्वय उस शान राशि से होना चाहिये, जिसका सञ्चय हमारे पर्थिकृत योगियों और तपस्वियों ने किया था। इस समन्वय से ही व्यथित मानव को अपने कल्याण का मार्ग मिलेगा।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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