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________________ भगवान् महावीर : वैशाली की दिव्य विभूति 241 (4) पं० कल्याणविजयजी ने जैनसूत्रों के आधार पर महावीर के चातुर्मास्य के बिताने के स्थानों का बड़ा ही सांगोपांग वर्णन किया है। महावीर ने प्रथम चातुर्मास्य अस्थिक ग्राम में बिताया और दूसरा राजगृह में। राजगृह जाते वे 'श्वेताम्बिका' नगरी से होकर गये और तदनन्तर गंगा को पार कर राजगृह में पहुँचे / बौद्धग्रन्थों से पता चलता है कि श्वेताम्बिका श्रावस्ती से कपिलवस्तु की तरफ जाते समय रास्ते में पड़ती थी। यह प्रदेश कोशल के पूर्वोत्तर में और विदेह के पश्चिम में पड़ता था और वहां से राजगृह की तरफ जाते समय बीच में गंगा पार करनी पड़ती थी, यह इन स्थानों की भौगोलिक स्थिति के निरीक्षण से प्रतीत होता है / आधुनिक क्षत्रियकुण्डपुर जहाँ बतलाया जाता है, वहाँ से ये दोनों बातें ठीक नहीं उतरतीं। वहां से श्वेताम्बिका नगरी न तो रास्ते में पड़ती है और न राजगृह जाते समय रास्ते में गंगा को पार करने का अवसर आवेगा। इन सब प्रमाणों पर ध्यान देने से प्रतीत होता है कि वैशाली ही वर्धमान महावीर की जन्मभूमि थी, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सकता। महावीर की मृत्यु 'पावापुर' में मानी जाती है। बौद्धग्रन्थों के अनुशीलन से जान पड़ता है कि यह स्थान जिला गोरखपुर के पडरौना के पास 'पप-उर' ही है। संगीति परियायसुत्त (दीघनिकाय ३३वा सुत्त) के अध्ययन से पता चलता है कि यहाँ मल्ल नामक गणतन्त्र की राजधानी थी जिसके नये संस्थागार (संठागार) में बुद्ध ने निवास किया। यह भी पता चलता है कि बुद्ध के आने से पहले ही 'निगंठ नातपुत्त' का देहावसान हो चुका था और उनके भक्तों तथा अनुयायियों में मतभेद भी होने लगा था। बौद्धग्रन्थों में महावीर 'निगंठ नातपुत्त' के नाम से विख्यात है। 'नातपुत्त' तो ज्ञातिपुत्र है / ज्ञाति नामक क्षत्रियवंश में उत्पन्न होने से यह नाम पड़ा। 'निगंठ' निग्रन्थ है जो संसार की प्रन्थियों से मुक्त होने के कारण केवल ज्ञान-सम्पन्न वर्धमान की उस समय की उपाधि प्रतीत होता है / जैनधर्म की विपुल उन्नति के कारण ये ही वर्धमान महावीर हैं, जिनका जन्म क्षत्रियकुण्डग्राम में 599 ई० पू० तथा तिरोधान 527 ई० पू० पावापुर में हुआ। इनकी जीवनघटनाएं नितान्त प्रसिद्ध हैं। पार्श्वनाथ के द्वारा जिस जैनधर्म की व्यवस्था पहले की गई थी उसमें इन्होंने संशोधन कर उसे समयानुकूल बनाया / पाश्वनाथ ने चार महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह–के विधान पर जोर दिया है, पर महावीर ने 'ब्रह्मचर्य' को भी उतना ही आवश्यक तथा उपादेय बतला कर उसकी भी गणना महाव्रतों में की है। पाश्वनाथ वस्त्रधारण करने के पक्षपाती थे, पर महावीर ने नितान्त वैराग्य की साधना के लिए यतियों के वास्ते वस्त्रपरिधान का बहिष्कार कर नग्नत्व को ही आदर्श आचार बतलाया है / आजकल के श्वेताम्वर तथा दिमम्बर सम्प्रदायों का विभेद इस प्रकार बहुत प्राचीन काल से चला आता है। ___महावीर ने व्यक्ति के लिए जो सन्देश प्रस्तुत किया है वह सदा मनुष्यों के हृदय में आशा तथा उत्साह का संचार करता रहेगा। प्राणी अपना प्रभु स्वयं है / उसे अपने कर्मों के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति पर आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं है / जीव स्वावलम्बी
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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