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________________ वैशाली और दीर्घप्रज्ञ भगवान महावीर / 113 ऊपर जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, वे वैशाली के गणराज्य में पूर्णमात्रा में विकसित थीं अर्थात् वैशाली संघ में कुलसंस्था का शासन, व्यक्ति का अनुभाव या गरिमा और शम की नीति; इन तीनों विशेषताओं का वर्णन लिच्छवियों के इतिहास से प्राप्त होता है। लिच्छवियों के 7707 कुल थे। प्रत्येक कुल का कुलवृद्ध या प्रतिनिधि 'राजा' की पदवी धारण करता था- एकक एवं मन्यते अहं राजा अहं राजेति (ललितविस्तर)। इसे ही महाभारत में 'गृहे गृहे हि राजानः' कहा गया है। प्रत्येक 'राजा' या कुल के प्रतिनिधि क्षत्रिय को गण के ऐश्वर्य या प्रभुसत्ता में समान अधिकार प्राप्त था। लिच्छवियों के वैशाली नगर में गण के अन्तर्गत राजाओं के जितने कुल थे उनके राज्याधिकार पर अभिषेक करने का जल एक विशेष पुष्करिणी या कुण्ड से लिया जाता था, जिसे मंगलपुष्करिणी कहते थे (वेसालीनगरे गणराजकुलानं अभिषेकमंगलपोक्खरणी, * जातक 4 / 148) / उस पुष्करिणी का जल राज्य के ऐश्वर्य का प्रतीक था। अतएव जिन कुलों में प्रभुसत्ता पीढ़ी दर पीढ़ी चली आती थी, उन्हें ही मंगलपुष्करिणी से मूर्धाभिषिक्त बनने के लिये जल प्राप्त करने का अधिकार था। गण की सभा में वे ही बैठ सकते थे, जो विधिवत् मूर्धाभिषिक्त होते थे। यह अभिषेक किस अवसर पर किया जाता था, इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है। प्रत्येक कुल का बड़ा बूढ़ा या कुलवृद्ध उसका प्रतिनिधि होता था / कुलवृद्ध पिता के अनन्तर उसका पुत्र इस पदबी का अधिकारी बनता था। उस अवसर पर उसका मूर्धाभिषेक समस्त समाज की उपस्थिति में समारोहपूर्वक किया जाता था। आजकल की भाषा में इस लोक-प्रथा को पगड़ी बांधना' कहते हैं। समस्त कुल एक दूसरे की तुलना में समानाधिकार रखते थे-जात्या च सदृशाः सर्वे कुलेन सदृशास्तथा, अर्थात् सब मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय जन्म और कुल इन दोनों बातों में सर्वथा समान थे। कोई किसी तरह की विशिष्टता का दावा न कर सकता था। लिच्छवि संघ या वृज्जि जनपद में जो चिरन्तन परम्पराएं पोषित हुई थीं, उनके अनुसार जातीय स्वाभिमान समत्वभाव, वैयक्तिक गरिमा और स्वातन्त्र्य भावनाओं की प्रधानता थीऐसा बौद्ध साहित्य से विदित होता है। पारिवारिक जीवन की शुद्धि और आदर्श स्थापना के उनमें कठोर नियम थे। कहा जाता है कि यहां के क्षत्रिय कुमार एक-से रथों पर एक समान वेश पहन कर एक से अनुभाव से निकलते थे। यहां की कुलपद्धति के लिये भाषा में विशेष शब्द ही प्रचलित हो गया था, जिसे कात्यायन ने 'वृजिगार्हपतम्' कहा है (सूत्र 6 / 2 / 42) / सभापर्व में जिसे जनपद का श्रेय कहा है, उस कल्याण रूप की पूर्ण मात्रा का दर्शन लिच्छवि संघ में उस समय उपलब्ध था। उनके जीवन के रोचनात्मक वर्णन बौद्ध और जैन साहित्य में उपलब्ध हैं। लिच्छवि उस समय की संघ-शृंखला में केवल एक कड़ी थे। वस्तुतः महाजनपद युग में संघों की यह परम्परा मिथिला से लेकर वाह्नीक तक फैली हुई थी। वह राष्ट्रीय जीवन का अभूतपूर्व प्रयोग था। मानवीय स्वतन्त्रता और वैयक्तिक गरिमा का जो अनुभव राष्ट्र ने उस युग में किया, वैसा फिर देखने में नहीं आया। जनपद या संघराज्य संस्कृति की सच्ची धात्रियां बन गई। देश का अधिकांश क्षेत्र जनपदीय संगठन के प्रभाव में आ गया। उस युग 15
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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