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________________ 112 Homage to Vaisali (2) साम्राज्य-पद्धति सबको हड़प कर सारा अधिकार एक व्यक्ति में केन्द्रित कर देती है (साम्राट् शब्दो हि कृत्स्नमाक्) / गणों की भावना इसके ठीक विपरीत होती है / गण शक्ति के एकत्र केन्द्रित होने को सहन नहीं कर सकते (न च साम्राज्यमाप्तास्ते)। (3, पारमेष्ठ्य या गणशासन में सब लोग एक दूसरे के अनुभव या व्यक्तिगरिमा को स्वीकार करते हैं (परानुभावज्ञ) और परस्पर मिलजुलकर व्यवहार करते हैं (परेण समवेतः)। वे स्वयं अपनी शक्ति की डोंग नहीं हांकते, जैसा साम्राज्यवादी किया करते हैं / (4) गण राज्य में जनपद या देश की विशाल भूमि भीतर तक जीवन के कल्याणों से भरी पूरी रहती है अर्थात् राज्य की समृद्धि का वरदान दूर-दूर तक प्रजाओं के घर-घर में फैल जाता है। इसके विपरीत साम्राज्य में सब कुछ सम्राट् के राजकुल या उसकी राजधानी में सिमट कर रह जाता है। राजकुल के व्यक्ति या जिनकी वहां तक पहुँच हो जाती है, वे ही साम्राज्य में कल्याण के भागी बनते हैं। (5) पारमेष्ठ्य शासन में शम या शांति शासन का मुख्य आधार होती है / जो लोग यह कह सकते हैं कि शम की नीति मोक्ष या निर्वाण के मार्ग पर चलनेवालों के लिये है, मैं उनसे सहमत नहीं (शममेव परं मन्ये नतु मोक्षाद् भवेच्छमः)। राष्ट्रनीति में यदि साम्राज्य की मनोवृत्ति को छोड़ दिया जाय और पारमेष्ठ्य आदर्श स्वीकार कर लिया जाय तो निश्चय ही शम या शांति की प्राप्ति सम्भव है। साम्राज्य का मूल बल है, पारमेष्ठ्य या गणतंत्र का मूल शम है, तभी तो जरासन्ध बलपूर्वक ही साम्राज्य चलाता था। . (6) यह निश्चित है कि सैनिक पराक्रम से पारमेष्ठ्य आदर्श की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती (आरम्भे पारमेष्ठ्यं तु न प्राप्यमिति मे मतिः) / (7) पारमेष्ठ्य शासन में सदा एक व्यक्ति सर्वोपरि या श्रेष्ठ नहीं रहता। जो गण के प्रतिनिधि हैं, उनमें कभी कोई और कभी कोई श्रेष्ठ बन जाता है (कश्चित् कदाचिदेतेषां भवेच् छेष्ठो जनार्दन), अर्थात् कुलों की शासन-प्रणाली में श्रेष्ठता या परमता कभी किसी के पास चली जाती है, कभी किसी के पास'। 1. गहे गहे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकरा। न च साम्राज्यमाप्तास्ते सम्राट् शब्दो हि कृत्स्नभाक् // 2 // कथं परानुभावशः स्वं प्रशंसितुमर्हति / परेण समवेतस्त यः प्रशस्तः स पूज्यते // 3 // विशाला बहला भूमिबहरत्नसमाधिता। दूरं गत्वा विजानाति श्रेयो वृष्णिकुलोवह // 4 // शममेव परं मन्ये नतु मोक्षाद् भवेच् छमः / आरम्भे पारमेष्ट्यं तु न प्राप्यमिति मे मतिः // 5 // एवमेवाभिजानन्ति कुले जाता मनस्विनः / कश्चित् कवाचिदेतेषां भवेच्छ छो जनार्दन // 6 // (सभापर्व अ० 14)
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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