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________________ भगवान महावीर और उनका लोक-कल्याणकारी सन्देश 99 बंध होता है और वह सुख भोगता है तथा स्वर्ग को जाता है। और जीव यदि अशुभ यां बुरे कर्म करता है, तो उसे पाप का बंध होता है, वह दुःख भोगता है और नरक को जाता है। मनुष्य से लेकर पशु, पक्षी, कीट पतंग एवं वृक्ष, वनस्पति आदि सब सचेतन पदार्थों में जीव रहता है। जीव की ये गतियां उसके पुष्य और पाप के फल से ही उत्पन्न होती हैं। जब मनुष्य श्रद्धा, ज्ञान और संयम के द्वारा पाप-पुण्य रूपी कर्म-बंध का नाश कर देता है, तब वह इस संसार से मुक्त हो जाता है। यही उसका निर्वाण है, जिसके होने पर आत्मा में सच्चे ज्ञान और निर्बाध सुख की उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार यही जीव परमात्मा हो जाता है। अपने इस तत्त्वज्ञान के आधार पर भगवान् महाबीर ने जीवन को सुखमय, सुशांतिपूर्ण और कल्याणकारी बनाने के लिए कुछ उपयोगी नियम स्थिर किये / चूंकि सभी जीवधारियों में परमात्मा बनने की योग्यता रखनेवाला जीव विद्यमान है, अतएव सत्ता की दृष्टि से वे सब समान हैं और अपना-अपना विकास करने में स्वतंत्र हैं। वे सब अपने-अपने कर्मानुसार नाना गतियों और मिन्न अवस्थाओं में विविध प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव करते हैं। इसमें न कोई देवी-देवता उन्हें क्षमा कर सकता है और न दंड दे सकता है / अतएव प्रत्येक मनुष्य को अपनी पूरी जिम्मेदारी का ध्यान रखते हुए अपना चरित्र शुद्ध और उन्नतिशील बनाना चाहिए। अपनी इस जिम्मेदारी को कभी भूलना नहीं चाहिए और न सदाचार में कोई प्रमाद करना चाहिए। प्रमाद, भूल और अपराध करने से केवल अपना ही बुरा होता हो, सो बात नहीं है। अपनी आत्मा का अधःपात तो होता ही है, किंतु साथ ही उसके द्वारा दूसरे प्राणियों के विकास में भी बाधा पड़ती है। और यही यथार्थतः हिंसा है। जब हम क्रोध के वशीभूत होकर, या अंहकार-वश, अथवा छल-कपट-बुद्धि से, या लोभवश कुछ अनाचार या दुराचार करते हैं, तब हम स्वयं पाप के भागी होते हैं और दूसरे प्राणियों को हानि या चोट पहुंचाते है, जो हिंसा है। दूसरे जीवों का प्राण-हरण करना तो. हिंसा है ही, उनको किसी प्रकार हानि या चोट पहुंचाना भी हिंसा है, जिससे सदाचारी मनुष्य को सावधान रहना चाहिए। किसी का प्राण-हरण करना या चोट पहुँचाना जैसा पाप है, उसी प्रकार चोरी करना, झूठ बोलना, व्यभिचार करना भी पाप है। यहां तक कि अपनी और अपने कुटुंब की आवश्यकताओं से अधिक धन-संचय का लोम करना भी पाप है। इन्हीं पांच पापों से समाज में नाना प्रकार का विद्वेष, कलह ओर संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि लोग इस पांच पापों का परित्याग कर दें, तो वे समाज के विश्वासपात्र और प्रेम-भाजन बन जाते हैं और कभी भी किसी देश या काल में किसी अपराध में नहीं फंस सकते हैं। चूंकि सभी प्राणी परमात्मत्व की ओर विकास कर रहे हैं, अतएव वे सब एक ही पथ के पथिक हैं। अतः उनमें परस्पर समझदारी और सहयोग एवं सहायता को भावन होनी चाहिए, न कि परस्पर विद्वेष और कलह की। विद्वेष का मूल कारण प्रायः यह हुआ करता है कि या तो हम भूल जाते हैं कि हम मनुष्य हैं, या हमारी लोलुपता हमें मनुष्यता से भ्रष्ट कर देती हैं। इन्हीं दो प्रवृत्तियों से बचने के लिए भगवान महावीर ने मद्य और मांस
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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