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________________ 443 उत्तरीय तथा अन्तरीय पहिनना चाहिए। कार्य की अपेक्षा वस्त्र का चयन करना चाहिए। शांति कर्म के लिए श्वेत, विजय प्राप्ति के लिए श्याम, कल्याण की भावना के लिए रक्तवर्ण, भयकार्य के लिए हरित, धनादि की प्राप्ति के लिए पीत एवं सिद्धि के लिये पंचवर्ण के वस्त्र धारण करना चाहिए। ये वस्त्र खण्डित, वालित छिन्न एवं | मलिन नहीं होना चाहिए। दोषपूर्ण वस्त्र पहनकर अनुष्ठान करने से दान पूजा तप होम और स्वाध्याय निष्फल ! होते हैं। (2) सकलीकरण सकलीकरण पूर्वक जाप आदि करने का वर्णन आचार्य सोमदेव ने किया है किन्तु उसकी विधि नहीं बतलाई है। इसकी विधि का वर्णन आचार्य अमितगति ने किया है। इनमें जिन मंत्रों को बताया है वे मंत्र वैदिक सम्प्रदाय ! में भी पाये जाते हैं उनमे मात्र पंचपरमेष्ठीवाचक एक-एक पद जोड़ा गया है। सकलीकरण में सर्वप्रथम उत्तम मंत्र के द्वारा जल को अमृत रूप करके उससे जल, स्नान, मंत्र स्नान एवं व्रत स्नान करके अंतरंग एवं बाह्य शुद्धि करना चाहिए। ° पूजन को नव स्थानों पर तिलक लगाना चाहिए। तिलक मुक्ति लक्ष्मी का आभूषण है। इसके बिना पूजक इन्द्र की पूजा निरर्थक होती है। तिलक लगाने से शरीर शुद्ध हो जाता है दूसरे यह इन्द्र के आभूषण का प्रतीक भी है। मंत्रो से शरीर एवं हाथों को शुद्धकर बीज मंत्रों के द्वारा वाम हस्त की अंगुली से शिर आदि अंगों में पंच परमेष्ठी की स्थापना कर सकलीकरण करना चाहिए। अन्य जीव, अजीव कृत उपद्रव उत्पन्न न हो इसके लिए गूढ़ बीजाक्षरों के द्वारा पीले सरसों से दशों दिशाओं का बंधन करें इससे अनुष्ठान व क्षेत्र में व्यन्तर आदि क्षुद्र देवों एवं परकृत तंत्र मंत्र आदि का प्रभाव नहीं पड़ता है। 2 और हमारा अनुष्यन सानंद संपन्न होता है। इन्द्र प्रतिष्ठा :- हमारी भक्तिपूजा/आराधना श्रेष्ठ हो इसलिए हम इन्द्र बनकर भगवान की पूजा करते हैं पूजा के पहले अंगन्यास कर 'मैं इन्द्र हूँ' ऐसी कल्पना करके कंकण, मुकुट मुद्रिका और यज्ञोपवीत आदि । इन्द्रोचित आभूषण मंत्रों द्वारा धारण करें और मंत्रोचारण पूर्वक देव/इन्द्र की स्थापना करे और इन्द्रों जैसा | आचरण करके पूजा करे। इन्द्र सोलह श्रृंगार/आभूषण सहित, अंगोपांग सहित, विनयवान, भक्तिवाला, समर्थ ! श्रद्धावान लोभरहित और मौन सहित होता है। संकल्प बद्ध होने के लिए एवं उपद्रवों से स्वयं की एवं व्रतादि । की रक्षा के लिए दाहिने हाथ में रक्षासूत्र (मौली) बंधना चाहिए। इसे यज्ञ दीक्षा एवं संकल्प सूत्र भी कहते हैं।। इससे हम प्रतिज्ञाबद्ध होकर अनुष्ठान पर्यन्त नियमों का पालन करते हैं। यदि स्त्रियाँ पूजा/अनुष्ठान करें तो । स्नान, शुद्ध वस्त्र, चन्दन लेपन, सोलह आभूषण धारण कर पूजा करें। वह स्त्री, सती हो, शीलव्रत धारण ! करनेवाली हो। विनयगुण सहित एकाग्रचित्त एवं सम्यक्त्व से मंडित हो। यज्ञोपवीत- यज्ञोपवीत का वर्णन जिनसेनाचार्य ने संस्कारों के विधान में किया है। पं. आशाधरजीने उपनयन । संस्कार का तो वर्णन किया है, परंतु यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं किया है। आचार्य देवसेनने भावसंग्रह में 'मैं इन्द्र हूँ' ऐसा संकल्प करके कंकण, मुकुट, मुद्रिका आदि आभूषणों के साथ यज्ञोपवीत धारण करने का उल्लेख किया है, अन्य श्रावकाचारों में यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं मिलता है। प्रतिष्ठा पाठ में जो यज्ञोपवीत का उल्लेख मिलता है उसका अभिप्राय मात्र इतना है कि जब तक पूजा-पाठ जाप, हवन आदि विधान/अनुष्ठान किया जाता है तब तक संयमपूर्वक रहने के लिए मैं इस संकल्पसूत्र को धारण करता हूँ। इसे व्रत चिन्ह आदि अनेक प्रकार से श्री । जिनसेनस्वामी ने इस प्रकार वर्णन किया है- (1) उपनीति संस्कार में बालक को यज्ञोपवीत धारण करने का , विधान (2) जिन व्रती जनों के जितनी प्रतिमा हो उतने यज्ञोपवीत धारण करने का विधान (3) सर्वज्ञ देव की आज्ञा को प्रधान मानने वाले द्विज को मंत्रपूर्वक यज्ञोपवीत सूत्र धारण करना उसका व्रत चिन्ह है यह दो प्रकार ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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