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________________ 442 r e am - - - - - - - - - - - पूजा के छह भेद(1) नामपूजा- जिनदेव का नाम उच्चारण कर पुष्पक्षेपण करना। (2) स्थापना पूजा- साकार वस्तु (प्रतिमा) में गुणों का आरोपण कर पूजा करना। (3) द्रव्य पूजा- अरिहंतादिक की जलादि अष्ट द्रव्यों पूजा करना। (4) क्षेत्र पूजा- पंचकल्याणकों के स्थानों की पूजा करना। (5) काल पूजा-पंचकल्याणकों की तिथियों की पूजा करना। (6) भावपूजा- भगवान के गुणों की स्तुति पूर्वक त्रिकाल सामायिक।' द्रव्य पूजा के तीन भेद(1) सचित्त पूजा- प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु की पूजा (2) अचित्त पूजा- जिन तीर्थंकर के शरीर, द्रव्यश्रुत लिपिबद्ध शास्त्र आदि की पूजा (3) मिश्र पूजा- दोनों प्रकार की पूजा एक साथ करना पूजा के पांच भेद(1) नित्यमह- प्रतिदिन घर से द्रव्य ले जाकर पूजन करना या जिनबिम्ब, जिनमंदिर निर्माण करवाना और इनके संरक्षण के लिए खेत आदि दान देना। (2) चतुर्मुखमह- महामण्डलेश्वर, मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा। (3) कल्पद्रुमह- चक्रवर्ती द्वारा किमिच्छकदान देकर की जाने वाली पूजा। (4) अष्टान्हिकमह- सर्वसाधारण जनों द्वारा की जाने वाली पूजा। (5) इन्द्रध्वजमह- इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली पूजा, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा आदि। पूजा के दो अन्य भेद (1) नित्यपूजा-जिन भक्तों के द्वारा प्रतिदिन, अभिषेक पूजा आदि को नित्य पूजा कहते हैं। (2) नैमित्तिक पूजा- पर्व उत्सव एवं विशेष प्रसंगों पर किये जाने वाले अभिषेक, गीतनृत्य, प्रतिष्ठा, रथयात्रा आदि नैमित्तिक पूजा विधि कहलाती है। तीनों संध्याओं में की जाने वाली पूजा/आराधना उपरोक्त भेदों में ही गर्भित है। इन पजाओं को समीचीन विधिपूर्वक करना ही विधि विधान, पूजा इज्या कहलाती है। पूजा को आगमोक्त तरीके से करने पर ही वह समीचीन फल को देती है। इसके लिए ही विधान/अनुष्ठान का निर्देश किया गया है पंच परमेष्ठी और शास्त्र की वैभव से नाना प्रकार पूजा की जाती है वह पूजा विधान कहलाता है। नियमपूर्वक, शास्त्राज्ञानुसार वांछित फल की आकंक्षा से पूज्य की आराधना करना अनुष्ठान है। अर्थात् धार्मिक कृत्यों, संस्कारों का सविधि प्रयोग अनुष्ठान कहलाता है। अनुष्ठान पूर्वक पूजा को हम निम्न बिन्दुओं के आधार से जान सकते हैं- (1) शुद्धि (2) सकलीकरण (3) मांडना (4) पूजाविधि (5) जाप (6) हवन (1) शुद्धि पूजा विधि के लिये हमें सबसे पहले अंतरंग शुद्धि और बहिरंग शुद्धि करना चाहिए। चित्त के बुरे विचार दूर करना अंतरंग शुद्धि और विधिपूर्वक स्नान करने को बहिरंग शुद्धि कहते हैं। छने पानी से स्नान कर दातुन | कुल्ला आदि से मुखशुद्धि करके मुख पर वस्त्र लगाकर दूसरों से किसी प्रकार का संपर्क रखना चाहिए एवं स्वच्छ । Pos
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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