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________________ 380 सुतियों के चातायत से 1 होता है जहां केवल आकाश ही होता है व शेष 5 द्रव्य नहीं रहते हैं। ऐसे भाग को अलोकाकाश कहा जाता है। इसके विपरीत जिस भाग में अन्य सभी 5 द्रव्य रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं। लोकाकाश का आयतन 343 न राजु होता है । राजु इकाई कितने प्रकाश वर्ष के बराबर होती है, अनुसंधान का विषय एवं स्वतंत्र लेख का विषय है। पूरे लोकाकाश में सर्वत्र एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य भी निवास करते हैं। ये द्रव्य भी अनिर्मित एवं शाश्वत हैं। अपने आप में प्रत्येक द्रव्य कई गुणों का समूह होता है व उसको कोई बना नहीं सकता है व मिटा नहीं सकता है, उसको बने रहने हेतु किसी अन्य द्रव्य के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है, व उसका कोई भी मूल गुण कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है। सभी द्रव्य पृथक्-पृथक् होते हुए भी अन्य द्रव्यों की क्रियाओं में निमित्त बनते हैं। जैसे सेब के जमीन पर आने में पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण निमित्त बनता है। सेब एवं पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण तो एक पुद्गल स्कन्ध से दूसरे पुद्गल स्कन्ध के बीच का व्यवहार बताता है। पुद्गल - पुद्गल के अतिरिक्त जीव पुद्गल के बीच एवं इसी तरह अन्य द्रव्यों के बीच भी विशिष्ट प्रकार का व्यवहार होता है। धर्म द्रव्य का व्यवहार यह होता है कि वह जीव एवं पुद्गल को गमन ( Motion) करने में निमित्त होता है। धर्मद्रव्य गमन कराता नहीं है किन्तु गमन करने को उद्यत जीव एवं पुद्गल को गमन कराने में एक अदृश्य शक्ति की तरह निमित्त बनता है। लोकाकाश के बाहर धर्म द्रव्य नहीं है अतः लोकाकाश के बाहर जीव एवं पुद्गल का गमन संभव नहीं होता है । इसी तरह अधर्म द्रव्य का व्यवहार जीव एवं पुद्गल को ठहराने में निमित्त बनने का है। काल द्रव्य भी लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक काल द्रव्य होता है जिसे कालाणु कहा जाता है। प्रत्येक काला शाश्वत एवं अनिर्मित है। प्रत्येक कालाणु उस स्थान पर विद्यमान अन्य द्रव्यों की पर्याय के परिणमन में निमित्त होता है। 1 धर्म 'द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश (सीमित लोकाकाश + असीमित अलोकाकाश) एवं कालाणु के अस्तित्व एवं गुणधर्मों की चर्चा अपने आप में विज्ञान के लिए भी गूढ़ अध्ययन का विषय है। मोटे रूप से स्थान (Space) एवं समय (Time) की चर्चा भौतिक विज्ञान के लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी भौतिक ऊर्जा (पुद्गल) की। सापेक्षता की खोज के बाद यह माना जाने लगा कि यह ब्रह्माण्ड त्रिआयामी (Three Dimensional) न होकर चतु: आयामी (Four Dimensional) है। इसका स्थूल अभिप्राय यह है कि प्रत्येक स्थान पर समय भी निहित है - इसके मर्म को आत्मसात करना भी अधिकांश व्यक्तियों के लिए दुष्कर है। इन्द्रिय ज्ञान पर आधारित सामान्य विवेक बुद्धि तो स्थूल पुद्गल स्कन्धों के ज्ञान, स्थूल पैमाने से मापे जाने वाली जगह एवं घड़ी से मापे जाने वाले समय एवं आँखों को दिखाई देने वाली सशरीर जीव राशि तक ही सीमित है। भौतिक विज्ञान की आज की स्ट्रींग थ्योरी (String Theory) तो दूर क्वाण्टम फिल्ड थ्योरी एवं सापेक्षता सिद्धान्त की समझ भी सामान्य ! विवेक बुद्धि से परे है। सापेक्षता सिद्धान्त में चार विमाओं ( 3 आकाश की + 1 समय की ) की आवश्यकता होती है। स्ट्रींग थ्योरी में कई विमाओं की आवश्यकता होती है। 10 विमाओं की आवश्यकता की बात भी होती है। इन 10 विमाओं के भौतिक रूप में क्या किसी रूप में धर्म द्रव्य या अधर्म द्रव्य से संबंधित कोई दिशा भी है ? इस तरह के प्रश्न पूछने की स्थिति स्ट्रींग थ्योरी या इससे श्रेष्ठतर थ्योरी के विकास के बाद आ सकती है। अभी 1 तो विज्ञान के इस क्षेत्र में जिज्ञासा अधिक व हल कम है। अति सूक्ष्म कणों की समझ एवं अति विशाल गैलेक्सी की समझ के मामले में विज्ञान बहुत आगे बढ़ने के उपरांत भी बहुत पीछे है। किन्तु हमें यह नहीं भूलना है कि आनंद, शांति या जो स्रोत हैं वही प्रयोजनभूत हैं व ऐसा प्रयोजनभूत तत्त्वज्ञान आज भी उपलब्ध है।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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