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________________ 336 परिवर्तित कर दिया गया। इसका अर्थ नये परमाणु का उत्पाद और विद्यमान परमाणु का अनुत्पाट ही है अर्थात् परमाणु की प्राकृतिक संख्या स्थिर रहती है। तथापि जैन दर्शन का मत है कि परमाणु द्रव्यत्व की दृष्टि से अविनाशी है तथा पर्याय की दृष्टि से परिणमनशील है। बंधन - गुण : बंधन सिद्धांत - परमाणुओं के विभिन्न प्रकारों में परस्पर बंधन गुण पाया जाता है। इसी आधार पर स्कन्ध आदि बनते हैं। इसका कारण इनमें स्निग्धता · रुक्षता के विरोधी गुणों की उपस्थिति है। यद्यपि कुंदकुंद और उमास्वामी ने स्थूल रूप में ही लिया है, श्वेतांबर आगमों में इस एक विशिष्ट चिपकावक के रूप में बताया है, पर पांचवी सदी के पूज्यपाद ने इन गुणो को धनावेशी और ऋणावेशी रूप दिया जो आज की वैज्ञानिक मान्यता है। शास्त्रों में इस बंधन के सामान्य और परिवर्धित रूप गये हैं: | 1. परमाणुओं में बंधन विरोधी स्निग्ध और रुक्ष गुणों के कारण होता है। ये गुण गुणात्मक और परिमाणात्मकदोनों ही हो सकते हैं। यहाँ केवल विरोधी गुणो का बंध ही अपेक्षित है। वर्तमान में यह विद्युत-संयोजी माना जाता है। 2. निम्नतर (0 या 1 ) कोटि की वैद्युत प्रकृति (चाहे कोई भी हो) के परमाणुओ में बंध नहीं होता। (लेकिन यदि वैद्युत प्रकृति भिन्न हो तो बंध संभव है, जैसे अक्रिय गैस बंध) 3. यदि परमाणुओं में वैद्युत गुण समान हों, तो उनमें विशेष परिस्थितियों में ही बंध होता है। यदि विरोधी गुण समान हों, तो भी बंध संभव है ( हाइड्रोजन अणु) । पूर्वाचार्यों की तुलना में अमृतचंद्र के तत्वार्थसार की व्याख्या के अनुसार यह नियम यहाँ सकारात्मक रूप में दिया है। इसके पूर्व के आचार्य संबंधित सूत्र का अर्थ नकारात्मक ही मानते थे। इससे अनेक प्रकार की समस्याएं अव्याख्यात रही होंगीं। आज भी जैन इलेक्ट्रोजइलेक्ट्रन या पोजिट्रान -पोजिट्रान आदि के बंध की व्याख्या नहीं कर सकते क्योंकि इसमें समान वैद्युत प्रकृति के साथ पर्याप्त ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है। वर्तमान में यह बंध सहसंयोजी माना जा सकता है। 4. जिन परमाणु में समान या असमान वैद्युत गुण परस्पर में दो या दो से अधिक होते हैं, उनमें बंध होता है। यहाँ भी संबंधित सूत्र की व्याख्या में मतभेद है। ऐसा प्रतीत होता है कि वाचक उमास्वाति की व्याख्या आज की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है। इस बंध को उप-सह-संयोजी बंध माना जा सकता है। पं. फूलचन्द्र शास्त्री बताया है कि षट्खण्डागम की बंध व्याख्या पूर्ववर्ती दिगंबर आचार्यों से अधिक व्यावहारिक है और श्वेताम्बरी व्याख्या तो हमें 20वीं सदी तक ले आती है। 5. बंध के फलस्वरूप उत्पन्न उत्पादों की प्रकृति अधिक वाले परमाणु के अनुरूप होती है । (अब यह भिन्न कोटि की भी पाई गई है) उपरोक्त बंध नियमों के अनुसार बंधन की सात स्थितियां हो सकती हैं जिनमें दिगंबर केवल दो स्थितियों में ही बंध मानते हैं, जबकि श्वेताम्बर चार स्थितियों में और विज्ञान तो सात ही स्थितियों में बंध मानता है। इस संबंध में शास्त्री, जवेरी और जैन ने सारणी दी है।. परमाणु बंध के कारक सामान्यतः शास्त्रों में बंध कैसे होता है, के विषय में बताया है कि यह प्रतिघात से ही सम्भव है। यह शिथिलभौतिक और गाढ-रासायनिक हो सकता है। इसके लिये वैद्युत प्रकृति के अतिरिक्त (1) बंधनीय परमाणुओं का आंशिक या पूर्ण पारस्परिक सम्पर्क ( 2 ) सहज या प्रेरित प्रचण्ड गति ( 3 ) शक्तिशाली संघट्टन, (4) धात्वीय पात्र (उत्प्रेरक ?) (5) ऊर्जा या ताप की उपस्थिति ( 6 ) सूर्य किरणें ( 7 ) सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति 1
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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