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________________ 328 करोडों लोगों के दुखी होने, कष्ट भोगने और महा विनाश का कारण बन जाता है। प्रकृति के एक छोटे से अणु शक्ति का परिचय आज का मानव भली प्रकार जान गया है। फिर भी नहीं चेत रहा है। वेद, पुराण, गीता, कुरान, बाइबिल, गुरूग्रंथ साहिब आदि सभी जातियों और सम्प्रदायों के शिक्षाशास्त्र एक ही बात पुकार -पुकार कर कह रहे हैं कि प्रकृति के अनुकूल सादा जीवन निर्वाह करो। किसी को दुखी मत करो। व्यर्थ संग्रह मत करो । अधिकार की भावना छोड़ो। जो सहज उपलब्ध है, उसी में स्वयं निर्वाह करते: हुए, अन्य दूसरों का उपकार करते रहो । शांति से जियो और अन्य दूसरों को जीने की सुविधा देने में सहायता करो। श्रमण बनो और श्रम को ही मूल्यवान मानो । श्रमिक का शोषण मत करो। मुफ्त का अथवा बेईमानी का खाने से प्रमाद, अहंकार और लोभ ही बढ़ेगा। सात्त्विक विचार के लिये सात्त्विक भोजन आवश्यक है । अन्न और जल का प्रभाव सभी जीवों की वृत्ति पर होता है । अपने विचारों को चिन्तन मनन के द्वारा परिष्कृत करते रहने से ही जीवन में सुख और आनंद मिलेगा । अन्य दूसरे प्राणियों को सुखी करने की कामना करने वाला मनुष्य सदैव अपने कार्यों द्वारा भी तदनुसार काम करता है और उसी में प्रसन्न रहता है। उत्साहपूर्वक और उल्लास से परिपूर्ण होकर जो काम मन से - वचन से और शरीर से किये जाते हैं उन कृत्यों द्वारा करने वाला भी सुखी होता है और समाज भी सुखी होता है। पशुपक्षी और कीड़े-मकोड़े तक आनंदमय होकर विचरते रहते हैं । क्रोधित और उत्तेजित हुए बिना तो सांप, बिच्छू और ततैया भी नहीं सताते हैं । शेर जैसा खूंखार पशु भी आनन्द में मौज में पड़ा रहता है। भूख प्यास आदि की पीड़ा शांत हो जाने पर कोई किसी को नहीं सताता है। सिर्फ मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो भूख प्यास के अतिरिक्त अधिकार और संग्रह की लालसा में सदैव दुखी होता है और अन्य दूसरों का शोषण कर उन्हें दुखी करता रहता है। धर्म के नाम पर अपनी लोभ वृत्ति का पोषण मनुष्य ही कर सकता है। यही बात स्तात्वाद द्वारा अनेकों प्रकार | से विचारकों, आचार्यों और दार्शनिकों ने समय-समय पर समझाई है और स्वयं उस मार्ग पर चलकर समाज को । मार्ग दिखाया है। मनुष्य अपने मन में नाना प्रकार से विकल्प कर करके व्यर्थ ही क्लेश भोगता रहता है और मनुष्य जन्म व्यर्थ कर लेता है। मनुष्य जन्म ही एक ऐसी सुंदर और अनुपम पर्याय है जिसमें रहते हुए जीवात्मा अधिक उद्यमी होकर विशेष कार्य कर सकता है । परन्तु कठोर हृदय अहंकारी और लोभी मनुष्य अपना पूरा जीवन पशुवत व्यतीत कर लेता है। मात्र संग्रह करते रहना, आराम के नाम पर प्रमादी रहकर नशे आदि में मूर्च्छित रहना, संक्लेशित परिणाम करके कठोर रहना अथवा क्रोधादि करके फुफारें छोड़ते रहना और दूसरों को दुखी करने की योजनाएँ बनाते रहना या फिर विनाश करने के उपाय सोचना, यह सब क्या है ? क्या इस सबके लिये मनुष्य जन्म मिला है? इन सब बातों पर विचार करने वाला ही संत पुरूष कहा जायेगा। भक्त कहा जायेगा और दार्शनिक कहलायेगा । भारतवर्ष के साथ-साथ अन्य देशों में भी दार्शनिकों ने विश्व में पाये जाने वाले पदार्थों वस्तुओं प्राणियों और वनस्पतियों आदि पर विस्तृत विचार किया है और आज भी ऐसा चिन्तन हो रहा है। यह चिन्तन, मनन और विचार की क्रिया मनुष्य की बुद्धि में होना स्वाभाविक है । सोच विचार का दायरा एक छोटी सीमा के भीतर भी होता है और उससे बाहर निकलकर अनन्त आकाश में भी व्यापक हो जाता है। चिन्तन ( जानना - समझना ) स्थूल होता है और उत्सुकता होने से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तक भी होता है । पदार्थों में होने वाले परिणमन-संकरणपर्यावरण- प्रदूषण आदि का भी स्थूल रूप से अथवा सूक्ष्म रूप से अध्ययन मनुष्य ही करता है। एक पदार्थ का विस्फोट अन्य पदार्थों की पर्यायों में क्या-क्या विकृतियाँ कर सकता है इसका विचार और प्रयोग भी मनुष्य ही करता है ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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