SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - माया 327 | दार्शनिकों और आचार्यों ने स्वयं अनुभूत बातों को लिख देने के उपरांत भी यह बता दिया कि तत्त्वों एवं द्रव्यों| पदार्थों आदि में अनेक गुणधर्मों का होना पाया जाता है और उन सब गुण-धर्मों को शब्दों द्वारा पूरा का पूरा । बताना असंभव ही है। उनमें से कुछ एक को ही कहा जा सका है। गुणों एवं धर्मों को समझने के लिए उदाहरण | देना आवश्यक होता है। परन्तु उद्धरित वस्तु के किसी एक गुण या विशेष धर्म को ग्रहण करके भी वस्तु का कुछ ! अंश ही समझाया जा सकता है। पूरी बात जानने और समझने के लिये अधिक सोचने, विचारने, मनन करने और शोधन करने का प्रयत्न करना होगा। ____ छोटे शिशु को लोग बहुधा "तत्ता" है ऐसा कहकर समझा देते हैं, और शिशु "तत्ता" शब्द का भावार्थ भी समझ लेता है। वस्तु को छूने से जल जायेंगे-चिक जाएंगे-कष्ट होगा आदि-आदि बात शिशु समझ जाता है। गरम दूध से जिसका मुँह जल जाता है, वह छांछ यानी लस्सी भी फूंक-फूंक कर पीता है। धोखा खाया हुआ और . ठगा गया आदमी आगे विचार पूर्वक काम करने लग जाता है। यह सब सोच विचार और चिन्तन का ही नतीजा है। ___ लौकिक ज्ञान और भाषा आदि की शिक्षा ग्रहण करना और उसमें योग्यता प्राप्त कर लेना अलग बात है। भौतिक पदार्थों में घालमेल करना और उससे नए नए प्रभाव खोजना यह भौतिक विज्ञान का कार्य है। पदार्थो और द्रव्यों में अनन्त शक्ति रहती है और अनन्त धर्म द्रव्य में परिवर्तित हो सकते हैं इस बात को जैन आचार्यों ने जाना। आज का भौतिक विज्ञान तो उस जानकारी का अंश ही जान पाया है। अणु, परमाणु पुदगल द्रव्यों और जीव द्रव्य की अनन्त शक्तियों को पूर्वाचार्यों ने जान लिया था और समझाने का प्रयास भी किया। प्रकृति के साथ की जाने वाली छेड़छाड़ के दुष्परिणामों से भी अवगत करा दिया गया था। आगम ग्रंथों में प्रकृति के अनुकूल जीवन निर्वाह करने का उपदेश दिया गया है। वेद, पुराण और शास्त्र भी प्राकृतिक जीवन जीने का ही मार्ग प्रशस्त करते हैं और अप्राकृतिक तरीकों का निषेध करते हैं। मनुष्य ने अपना आहार-बिहार और व्यवहार आज दूषित कर लिया है और प्रकृति में प्रदूषण हो रहा है। इस सबसे आने वाले समय में हमारी सन्ताने और उनकी संताने एवं वायुमंडल के सभी प्राणी एवं जीव-जंतु घोर कष्ट पाऐंगे। परन्तु आज का अहंकारी मनुष्य अपने थोड़े से स्वार्थ एवं सुविधा के लिये यह सब करने को तत्पर हो गया , है। स्वार्थवश इस तरह तो विनाश को निमंत्रण दिया जा रहा है। यह पोषण नहीं शोषण हो रहा है। यह दर्शन नहीं । कुदर्शन है। इसी को राक्षसी वृत्ति कहा गया है। जल, वायु, मिट्टी, वनस्पति आदि में मिलावट और संकरण कर । के सभी पदार्थों को दूषित करने का एक ऐसा घिनौना कृत्य आजका अहंकारी और लोभी मनुष्य करने पर , आमादा हो गया है, जिसके परिणाम स्वरूप इस पृथ्वी पर प्रलय होना अवश्यंभावी हो गया है। विपदाएं और आपदाएं कोई ईश्वरीय शक्ति का कार्य नहीं है। यह तो प्रकृति के साथ की जाने वाली छेड़छाड़ का दुष्परिणाम है। भौतिक विज्ञान ने जहाँ हमें आराम देह वस्तुएँ प्रदान की हैं वहीं भयंकर खतरे भी खड़े कर दिये हैं। भूकम्प, ज्वालामुखी, भूस्खलन, बवंडर, तूफान, दावानल, बड़वानल, भयंकर गर्मी, भयंकर सर्दी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आकाशीय विद्युत शक्ति का अनियंत्रित हो जाना आदि ऐसे विनाशकारी कार्य हैं जिनसे कुछ ही समय में महाविनाश हो सकता है, इस सब गड़बड़ घोटाले के लिये मनुष्य के द्वारा प्रकति के साथ की जाने वाली छेड़छाड़ ही मुख्य कारण है। इस प्रकार मनुष्य इन सब प्राकृतिक आपदाओं और विनाश के लिये उत्तरदायी है। यह सामूहिक उत्तरदायित्व है और पूरी मनुष्य जाति इसके दोषारोपण से बच नहीं पायेगी। जिस प्रकार एक दार्शनिक और विचारक अपने चिन्तन से लाखों करोड़ों लोगों को सुखी जीवन जीने के योग्य वातावरण निर्मित कर देता है, उसी प्रकार एक अहंकारी लोभी और महत्वाकांक्षी कठोर हृदय का मनुष्य लाखों ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy