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________________ 12961 मतियों के बाद पड़ता है, जिस प्रकार अणु नाभि को तोड़ने हेतु स्निग्धत्व और रुक्षत्व (धनात्मक एवं ऋणात्मक आवेशों से) रहित न्यूट्रानकी गति को नियंत्रित करना होता है। ___ मोह और योगके निमित्त से होने वाले आत्माके परिणाम को गुण-स्थान कहते हैं। यह बात आगममें सर्वत्र वर्णित है कि किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ बन्ध, उदय और सत्त्व में रहती हैं तथा उत्कर्षण अपकर्षणादि विशेष प्रकार की बन्ध आस्थाओं को प्राप्त होती हैं परन्तु यह ज्ञान रहस्यमय है कि इन गुणस्थानों की प्राप्ति कैसे होती है? प्रकृतियाँ कटती कैसे हैं? प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध किस प्रकार विलय को प्राप्त होते हैं। मन तो प्रकृति को काट नहीं सकता क्योंकि यह एक योग है वचन और काय भी योग होने से कर्म काटने में नहीं बन्ध कराने में कारण हैं। कहा ही है- 'काय वाङमनःकर्म योगः सः आसवः।' विशुद्धि की धारा से कर्म प्रकृति काटी जा सकती है। विशुद्धि का परिणाम भव्यत्व और ज्ञान चेतना है। क्षमादि धर्म-भाव भव्यत्व है और ज्ञान चेतना शुद्धि है न कि मन। मन इंद्रियों का संस्कार है, जो भ्रम में डालता है। संवेदनाओं को पकड़ने वाला और विकृतिमें जाने वाला है। बुद्धि ज्ञान चेतना है। केवलज्ञानमय है, जीव जैसा है वैसा जीवको जानना ज्ञान चेतना है। जीव अनन्त दर्शन, ज्ञान शक्ति से समन्वित है। गुणस्थान एक नही अनेक हैं इसलिये मोह और योगके परिणाम भी अलग-अलग होंगे। यदि प्रथम गुणस्थान से आगेकी श्रेणी बढ़ना है। अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानमें पहुँचना है तो वहाँ तक पहुँचाने वाला आत्माका परिणाम कौन सा है? वह विशुद्धि करणके रूपमें वर्णित है। इन प्रकृतियों की निर्जरा तपसे ही होती है। 'इच्छा निरोधः तपः।' अतः अनशन आदि बाह्य तप और प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि अंतरंग तपसे ज्ञानावरण प्रकृतिका क्षय, क्षयोपशम देखा जाता है लेकिन जैन धर्मने सर्वप्रथम समस्त प्रकृतियों के बीजभूत मिथ्यात्व प्रकृतिको नष्ट करने का आह्वान किया है। । मिथ्यादर्शन मात्रका क्षय करते ही शेष सारी प्रकृतियाँ अपने आप गुणस्थानों की बुद्धि के साथ कटती चली जाती । हैं। इसके लिये प्रथम प्रयास विशुद्धि की मात्रा और शक्ति को बढ़ाने के लिये होता है। जैसे नदीमें बाढ़ आनेपर, पानीकी मात्रा तो बढ़ती ही है शक्ति भी बढ़ती चली जाती है। जिससे वह सब कुछ अपने प्रवाह में बहा ले जाती है। इसी तरह भव्य जीव असंख्यात गुणी विशुद्धि की मात्रा और अनन्त गुणी शक्ति तीन अन्तर्मुहूर्त तक बढ़ाते हुये सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। यही आत्मा की समृद्धि है। अक्षय निधि है जो अनेक भवों तक चलती चली जाती है। इस तरह सर्व प्रथम मिथ्यात्व प्रकृति को काटना प्रकृतियों के काटनेका वैज्ञानिक क्रम है। - जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रन्थ एक सैद्धान्तिक वैज्ञानिक प्रक्रिया को अपनाये हुये प्रतीत होते हैं जिसका मूल प्रयोजन अशुद्ध तत्त्व को शुद्ध तत्त्व में परिणत करने के लिये तथा शाश्वत और अजर अमर बनाने के लिये, जीवके पारिणामिक आदि भावों को विशेष रूपसे कर्म सिद्धान्त का, आगेका अध्ययन का विषय बनाया गया है। जैनाचार में विज्ञान कर्म सिद्धान्तमें पौद्गलिक आधार लेकर जीवकी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के माध्यम से जीवकी परिणति का कथन किया जाता है किन्तु जैसे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र को पारकर चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में पहुँचना या किसी यानका पहुँचाया जाना वैज्ञानिक अध्ययन की वस्तु है उसी प्रकार जैन धर्ममें सम्यक्-चारित्र । का विलक्षण वैज्ञानिक स्वरूप है। जब जीवको सम्यक् अथवा वैज्ञानिक दृष्टि प्राप्त हो जाती है कि मोक्षका । वास्तविक स्वरूप क्या है? तो वह इस बातका समीचीन ज्ञान प्राप्त करनेका प्रयास करने लगता है कि उसे कैसे ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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