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________________ R ENT www RR Rime मागम विज्ञान : 295 बंधका संचय किस रूपमें होता है। इस संचय में कर्मके परमाणु विशेष रूपसे निर्मित निषेकों के समूहके रूप में रहते हैं। ___3. मन वचन काय योग के आधार पर निर्मित कर्म परमाणुओं का समूह निषेक कहलाता है। ऐसे निषेक असंख्यात प्रकार के हुआ करते हैं, जिनकी श्रृंखला वर्गणा, स्पर्धक और गुण-हानिके रूप में व्यवस्थित रहती है। इनका विभाजन चार प्रकार के कर्म बंधके आधार पर होता है। योग, प्रकृति एवं प्रदेश बंध में कारण है तथा कषाय, स्थिति और अनुभाग बंधमें। 4. जितने प्रदेश अथवा कर्म परमाणु उस विशिष्ट योग से आस्रवित होते हैं वे एक समय पर्यन्त रुकते हैं लेकिन यदि योगके साथ-साथ कषाय भी हो तो सागरों पर्यन्त आत्म प्रदेशों से संलग्न रहे आते हैं। कषाय न केवल स्थिति में कारण है अपितु फलदानकी शक्ति रूप अनुभाग भी रागद्वेष के कारण ही होता है, जो अनेक 1 प्रकार के शक्त्यंश के रूप में पाये जाते हैं। इस प्रकार स्थिति रचना यंत्र में अनेक निषेक व्यवस्थित रहते हैं | जिनका कुल संचय या सत्य किंचित् ऊन द्वयर्थ गुणहानि गुणित समय प्रबद्ध भी एक समय में आसवित हो जाते हैं जो कषायके अनुसार स्थिति एवं अनुभागको प्राप्त करते हैं और पूर्व सत्व द्रव्य में अपनी व्यवस्था के अनुसार पूर्व निषेकों में संयुक्त हो जाते हैं। उस समय यंत्रका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। यह यंत्र प्रतिसमय न केवल | आम्रवित द्रव्यों से परिवर्तित होता है वरन् प्रतिपल समय प्रबद्ध अथवा समय प्रबद्ध से गुणित किसी चर संख्या ! द्वारा परिमाण में निर्जरित होता रहता है। इस तरह कभी कम अथवा अधिक आस्रव तथा कभी कम तथा अधिक निर्जरा के समीकरण से यह तंत्र परिवर्तनशील है और सम्पर्ण लोकके संसारी जीवों के कर्मों का गणितीय चित्रण करनेमें समर्थ है। ____5. गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गणास्थान एवं उपयोग इन प्ररूपणाओं का विशद ! वैज्ञानिक विवेचन गोम्मटसारादि ग्रंथो में द्रष्टव्य है। जगतके जीवों का अंको में प्रमाण दिया गया है। न केवल सम्पूर्ण जीव राशिका सामान्य प्रमाण, अपितु किस गतिमें, किस गुणस्थानमें कितने जीव हैं इसका भी स्पष्ट प्रमाण है। जीव किस स्थानपर निवास करते हैं, इस बातकी जब तक जानकारी न होगी, जीवरक्षा संभव नहीं है, जैसे जमीकन्द आदि में असंख्य जीवराशि होती है क्योंकि भूमिके अन्दर सूर्यका प्रकाश नहीं पहुंच पाता, जिससे जीवोंकी वृद्धि शीघ्र होती है, साथ ही भूमि के अन्दर उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में पृथ्वी तत्त्व अधिक पाया जाता है जो स्वास्थ्य-हानि में कारण है एवं तामसिकता को बढ़ाता है। __ भव्य जीव ही विशुद्धि के उच्चतम स्तर पर मिथ्यात्व के मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति रूप तीन टुकड़े करता है, कर्म परमाणुओं का द्रव्य एवं शक्ति अपना अपना प्रमाण लिये हुए सत्त्व में होती है, जिसका प्रमाण एम१ एम२ एम३ तथा ई१ ई२ ई३ के रूप में बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से लब्धिसार में वर्णित है। वस्तुतः भव्य जीव ही अधःकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण रूप तीन करण करता हुआ उसकी समाप्ति पर, जो कि प्रगाढ़ प्रबलतम भागों की गणितीय रूपमें चलनेवाली एक अनुपम धारा के रूपमें है, जो मिथ्यात्व के द्रव्य को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित करता है कि उसका द्रव्य तीन भागों में वितरित हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा वह मिथ्यात्व नाभिका विभंजन करता है, यह परमाणु के नाभि विभाजन से सादृश्य रखता है क्योंकि यह द्रव्य भी तीन प्रकारका है जो आधुनिक विज्ञान की यूरेनियम तत्व की नाभिको न्यूट्रॉन तोड़कर विभिन्न प्रकार के द्रव्य और उनकी शक्तियों के रूप में विखंडित किया जाता है। . विशुद्धि के उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिये उसी प्रकार मंदयोग और मंदकषाय की ओर अग्रसर होना । pm HIN - - -
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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