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________________ 1270 मातियों का चयन है। कार्लमार्क्स ने 'दास केपटल' में कहा कि पूंजी के संचय के साथ दुःख, परिश्रम की व्याकुलता, दासता, अज्ञान, क्रूरता व मानसिक पतन का संचय होता है। 19वीं सदी में भी अर्थशास्त्र को 'स्वार्थी होने का विज्ञान', 'घटिया विज्ञान', 'ब्रेड व बटर विज्ञान' आदि अनेक शब्दों द्वारा इसकी आलोचना की गई और वर्तमान में भी की जाती है। प्रत्येक जीव सुख चाहता है एवं दुःख को टालना चाहता है, लेकिन दुःख को जाने बिना उसका टालना कैसे संभव हो सकता है? अतः सुख का होना विरोधाभास रूप ही लगता है। इच्छाओं की पूर्ति को सामान्यतया सुख और अपूर्ति को दुःख कहा जाता है, परन्तु सभी इच्छाओं की पूर्ति तो हो नहीं सकती है अतः जीव निरंतर दुःखी ही रहता है। अतः जैन आगम कहता है कि सुख आत्मा का गुण है और उसको जाने व अनुभव किये बिना जीव कैसे सुखी हो सकता है? आत्मा तो सुख का खजाना है, सुख सागर है, आनंद से भरा पड़ा है। बाह्य पदार्थों की इच्छा ही जीव को दुःखी करती है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष जीवन के चार उद्देश्य कहे जाते हैं। इसकी सच्ची समझ तो आगम में बताई गई है जबकि अन्य तो इनका गलत अर्थ ही समझते हैं। सामान्यतया यह माना जाता है कि पारिवारिक धर्म की परम्पराएँ या क्रियायें निभाना ही धर्म हैसोना, चांदी, धन आदि को अर्थ कहते हैं; इंद्रियों के भोगों को काम कहते हैं; और स्वर्ग की प्राप्ति को मोक्ष कहते हैं। जैनागम में तो वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं, आत्मा के अनंत वैभव का अनुभव एवं उसकी प्राप्ति को अर्थ कहते हैं, इंद्रियों के भोगों पर विजय की इच्छा (कामना) होती है, और सिद्ध भगवान जैसी अनंत सुख की प्राप्ति को मोक्ष कहते हैं। इस प्रकार सामान्य जन उक्त चारों में बाह्य में सुख को खोजता है जबकि जैनागम उक्त चारों को अपने भीतर देखकर सुख खोजने को बतलाता है। उत्पत्ति वर्तमान में अर्थशास्त्र का इतिहास तो बिल्कुल नया है। लगभग 250 वर्ष पहले इसके बारे में लिखना व चर्चा प्रारंभ हुई। 18वीं शताब्दी के एडम स्मिथ को अर्थशास्त्र का पिता कहा जाता है। भारतीय परम्परा में कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी प्रसिद्ध है। जैनागम के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो अर्थशास्त्र अनादि से है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की धारणा अनादि से है। इस युग में तो लगभग एक कोड़ाकोड़ी सागर पहले प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प- ये छः प्रकार के कार्यों का उपदेश प्रजा की आजीविका हेतु अपने राज्यकाल दिया। शस्त्र धारण कर सुरक्षा कार्य असिकर्म है। लिखकर आजीविका चलाना मसिकर्म है। जमीन को जोत या बो कर फसल उगाना कृषि कर्म है। शास्त्र पढ़ाकर या नृत्य गान आदि द्वारा आजीविका करना विद्या कर्म है। व्यापार करना व्याणिज्य कर्म है और हस्तकला में प्रवीणता के कारण चित्र खींचना आदि शिल्प कर्म है। उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के काल में तीन वर्णों की स्थापना (क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र) एवं बाद में भरत चक्रवर्ती द्वारा ब्राह्मण वर्ग की स्थापना भी गुणों के साथ-साथ आजीविका से जुड़ी हुई है। प्रजा की आजीविका के उपायों का । विचार व मनन करने के कारण वे 'मनु' कहलाये। विदेह क्षेत्र की कर्म भूमि की स्थिति के अनुसार आदिनाथ के जीवन राजा के रूप में ऐसी अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया। उसी तरह ग्राम, घर आदि की रचना का उपदेश भी दिया। इस प्रकार आदिनाथ इस युग के प्रथम अर्थशास्त्री भी कहे जा सकते हैं और उनके द्वारा समाज व अर्थव्यवस्था के बारे में उपदेश को आदिपुराण में विस्तार से जाना जा सकता है। इससे अर्थसास्त्र का भी अनादि ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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