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________________ आवखण्ड 251 । गंगा आदि नदियाँ, पद्म आदि सरोवर हैं ये सब आर्यखण्ड के बाहर हैं। आर्यखण्ड में क्या-क्या है ___ इस युग के आदि में प्रभु श्री ऋषभदेव की आज्ञा से इन्द्र ने देश, नगर, ग्राम आदि की रचना की थी तथा स्वयं प्रभु जी ऋषभदेवने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्गों की व्यवस्था बनाई थी, जिसका विस्तार आदिपुराण में है। उस समय के बनाये गये बहुत कुछ ग्राम, नगर, देश आज भी उपलब्ध है। यथा____ 'अथानन्तर प्रभु के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये। इन्द्र ने शुभ मुहूर्त में अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की। पुनः पूर्व आदि चारों दिशाओं में भी जिनमंदिर बनाये। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और | सीमा सहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की। । सुकौशल, अवन्ती, पुण्ड्र, डण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुम, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरु, जांगल, कराहट, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, आभिर, कोंकण, वनवास, आंध्र, कर्नाटक, कौशल, चौण, केरल, दारु, अभीसार, सौवीर, शूरसेन, अप्रांतक, वि विदेह, सिंधु, गांधार, यवन, चेदी, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, बालहिक, तुरुष्क, शक और केकय इन | देशों की रचना की तथा इनके सिवाय उस समय और भी अनेक देशों का विभाग किया।१२ तथ्य क्या है ____१. एक राजू चौड़े निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊँचे इस मध्य लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। इनमें सर्वप्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तृत है। २. इस जम्बूद्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत है। इसी में भरत, हैमवत आदि सात क्षेत्र हैं। हिमवान आदि छः कुल पर्वत हैं। नदी सरोवर आदि अनेक रचनाएं हैं। ___३. इसके एक सौ नब्बे वें भाग प्रमाण भरत क्षेत्र व इतने ही प्रमाण ऐरावत क्षेत्र में जो आर्यखण्ड हैं उन आर्यखण्ड में ही षट्काल परिवर्तन से वृद्धि हास होता है। अन्यत्र कहीं भी परिवर्तन नहीं है। ४. अवसर्पिणी के कर्मभूमि की आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव की आज्ञानुसार इन्द्र ने बावन देश और अनेक नगरियाँ बसायी थीं। जिनमें से अयोध्या, हस्तिनापुर आदि नगरियाँ आज भी विद्यमान हैं। ५. इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में ही आज का उपलब्ध सारा विश्व है। इस आर्यखण्ड के भीतर में गंगासिंधु नंदी, सुमेरु पर्वत और विदेह क्षेत्र आदि को मानना त्रिलोकसार आदि ग्रंथों के अनुकूल नहीं है क्योंकि ! अकृत्रिम गंगा-सिंधु नदी तो आर्यखण्ड के पूर्व-पश्चिम सीमा में है. संदर्भ: १. तत्त्वार्थसूत्र अ.३, २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पंचम खण्ड, पृष्ठ ३४६, ३. तत्त्वार्थसूत्र, अ.३, ४. । तत्त्वार्थसूत्र, अ. ४, ५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पंचम खण्ड, ६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पंचम खण्ड, पृष्ठ ५७२५७३, ७. एवं कमेण भरहे अज्जाखण्डम्मि योजणं एक्कं। चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वढिंगदा भूमी ॥१५५१॥ वज्जमहागी बलेणं अज्डाखंडस्स वड्ढिया भूमि। पुबिल्ल खंडरूवं मुत्तूणं जादि लोयंतं॥१५५२॥(तिलोयपण्णत्ति अधिकार-४), ८. त्रिलोकसार गाथा ७९२, ९३.९४ में ऋषभदेव को भी कलकर मानकर १५ कहे हैं। अन्यत्र ग्रंथ में १४ माने हैं।, ९. त्रिलोकसार गाथा ८६४-६५, १०. त्रिलोकसार गाथा ८८२, ११. त्रिलोकसार गाथा ८८३, १२. तिलोयपण्णत्ति, प्रथम भाग, पृष्ठ १७१, १३. आदिपुराण, पृष्ठ ३६०।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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