SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1250 मतियों के मातामना | काल अर्थात् मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। हैमवत और हैरण्यवत में सुषमा-दुःषमा काल अर्थात् जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है तथा विदेह क्षेत्र में सदा ही चतुर्थ काल वर्तता है।' __ भरत और ऐरावत के पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयार्ध की विद्याधर की श्रेणियों में चतुर्थकाल के आदि से लेकर उसी काल के अन्त पर्यंत हानि वृद्धि होती रहती है। ___इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षेत्र में व क्षेत्रस्थ मनुष्य, तिर्यंचों में जो आयु, अवगाहन आदि का ह्रास देखा जा रहा है। वह अवसर्पिणी काल के निमित्त से है तथा जो भी जल के स्थान पर स्थल, पर्वत के स्थान पर क्षेत्र आदि परिवर्तन दिख रहे हैं वे भी इसी आर्यखण्ड में ही हैं। आर्यखण्ड के बाहर न कहीं कोई ऐसा परिवर्तन हो सकता है और न कहीं ऐसा नाश ही संभव है क्योंकि प्रलय काल इस आर्यखण्ड में ही आता है। ___ यही कारण है कि यहाँ आर्यखण्ड में कोई भी नदी, पर्वत, सरोवर, जिन मंदिर आदि अकृत्रिम रचनाएं नहीं । हैं। ये गंगा आदि नदियाँ जो दृष्टिगोचर हो रही हैं वे अकृत्रिम न होकर कृत्रिम हैं तथा अकृत्रिम नदियाँ व उनकी परिवार नदियाँ भी यहाँ आर्यखण्ड में नहीं हैं जैसा कि कहा है'गंगा महानदी की ये कुण्डों से उत्पन्न हुई १४००० परिवार नदियाँ ढाई म्लेच्छ खण्डों में ही हैं आर्यखण्डों में नहीं हैं।११ ___आर्यखण्ड कितना बड़ा है । यह भरत क्षेत्र जम्बूद्वीप के १९० वें भाग (५२६, ६/१९) योजन प्रमाण है। इसके बीच में ५० योजन विस्तृत । विजया है। उसे घटाकर आधा करने से दक्षिण भारत का प्रमाण आता है। यथा (५२६, ६/१९-५०) २=२३८, ३/१९ योजन है। हिमवान पर्वत पर पद्म सरोवर की ऊँचाई १००० योजन है, गंगा-सिंधु नदियाँ । पर्वत पर पूर्व-पश्चिम में ५-५ सौ योजन बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। अतः यह आर्यखण्ड पूर्व-पश्चिम में १०००+५००+५००=२००० योजन लम्बा और दक्षिण-उत्तर में २३८ योजन चौड़ा है। इनको आपस में गुणा करने पर २३८ योजन X २०००=४७६००० योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हुआ। इसके मील बनाने में ४७६००० x ४००० = १९०४००००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल होता है। ___ इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजया पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है और पश्चिम में इतनी दूरी पर ही सिंधु नदी की तट वेदी है। अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर में विजया, पूर्व में गंगा नदी एवं पश्चिम में सिंधु नदी है।ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप हैं। __ अयोध्या से दक्षिण में (११९x४००० = ४७६०००) चार लाख छियत्तर हजार मील जाने पर लवण समुद्र है। इतना ही उत्तर जाने पर विजया पर्वत है। ऐसे ही अयोध्या से पूर्व में (१००० x ४००० = ४००००००) चालीस लाख मील जाने पर गंगा नदी एवं पश्चिम में इतना ही जाने पर सिंधु नदी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में है। जम्बूद्वीप, उसके अन्तर्गत पर्वत, नदी, सरोवर, क्षेत्र आदि के माप का योजन २००० कोश का माना गया है। जम्बूद्वीपपण्णत्ति की प्रस्तावना में भी इसके बारे में अच्छा विस्तार है। जिसके कुछ अंश देखिए 'इस योजन की दूरी आजकल के रैखिक माप में क्या होगी? यदि हम २ हाथ = १ गज मानते हैं तो स्थूल । रूप से एक योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील के बराबर प्राप्त होता है।' निष्कर्ष यह निकलता है कि जम्बूद्वीप में जो भी सुमेरु हिमवान् आदि पर्वत हैमवत, हरि, विदेह आदि क्षेत्र,
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy