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________________ 230 । शाकटायन व्याकरण पर प्रभाचन्द्राचार्य, जो पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के विचार में न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता | से भिन्न हैं, ने अमोघवृत्ति पर 'शाकटायन न्यास' की रचना की है, जिसके मात्र दो अध्याय ही उपलब्ध हैं। ___यक्षवर्मा नामक वैयाकरण ने अमोघवृत्ति के आधार पर "शाकटायन चिन्तामणि' नामक लघुवृत्ति रची है। | इसका परिमाण 6 हजार श्लोक है। यक्षवर्मा ने वृत्ति के प्रारम्भिक भाग में इसकी सरलता के विषय में स्वयं लिखा है- "इस वृत्ति के अभ्यास से बालक एवं बालिकाएं निश्चय से एक वर्ष में ही समस्त वाङमय को जानने में सक्षम | हो जाते हैं।" चिन्तामणि वृत्ति पर अजितसेनाचार्य ने मणिप्रकाशिका नामक टीका की रचना की है। भट्टोज दीक्षित की सिद्धान्त कौमुदी के ढंग पर अभयचन्द्राचार्य ने शाकटायन पर प्रक्रिया ग्रन्थ लिखा है, जो जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, मुम्बई से प्रकाशित हो चुका है, इस प्रक्रिया ग्रन्थ का संशोधन / संपादन बालशर्मा अनन्तवीर्य द्वारा किया गया है। __भावसेन त्रैविद्य ने शाकटायन व्याकरण पर 'शाकटायन व्याकरण टीका' लिखी थी। ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है पर श्रीवेलणकर ने इसका उल्लेख किया है। ___ द्रविड़संघ के मुनि श्रीदयापाल ने वि.सं. 1052 में शाकटायन पर लघु कौमुदी के समान रूपसिद्धि नाम्नी एक लघ्वी टीका भी लिखी है इन टीका ग्रन्थों के आधार पर ग्रन्थ की लोकप्रियता एवम् प्रसिद्धि सहज अनुमेय है। ___ इस प्रकार जैन व्याकरण परम्परा के उन्नयन में शाकटायन वैयाकरण एवम् उनके आम्नाय के वैयाकरणों का महनीय योगदान ज्ञापित होता है। कातन्त्र-व्याकरण संप्रदाय जैन व्याकरणों में कातन्त्र संप्रदाय अति प्रचारित रहा है। कातन्त्र व्याकरण कौमार व्याकरण एवम् कालापक व्याकरण नाम से अभिहित किया जाता है। कु ईषत्, तन्त्रम् इति कातन्त्रम्, 'कु' के स्थान पर 'का' आदेश होने । से शब्द निष्पन्न होता है। कार्तिकेय के वाहन मयूर पिच्छों से संगृहीत होने से यह कालापक भी कहा जाता है। । कुमार अर्थात् कार्तिकेय के द्वारा प्रेरित होने के कारण उसका कौमार नाम भी पड़ा। पाणिनीय व्याकरण प्रत्याहार आदि के आश्रय से लिखित होने से एवम् अत्यधिक सूक्ष्मता से बद्ध होने के कारण जनसामान्य में क्लिष्ट था, अतः भाषा में प्रयुक्त नवशब्दों की सिद्धि के लिये कातन्त्र व्याकरण सामने आया इसकी रचना सातवाहन के प्रतिबोधनार्थ की जाने के प्रमाण मिलते हैं। __ जैन हितैषी अंक 4, वी.नि.2441 में प्रकाशित 'कातन्त्र व्याकरण का विदेशों में प्रचार' नामक लेख में बताया गया है कि मध्य एशिया में भूखनन से कूब्राराज्य का पता लगा है और वहां जो प्राचीन साहित्य मिला है उससे ज्ञात होता है, वहां संस्कृत व्याकरण के पठन पाठन का आधार कातन्त्र ही था। इससे इस व्याकरण की । प्रसिद्धि और लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है। कातन्त्र व्याकरण के प्रवक्ता शर्ववर्म हैं। इनके काल का ठीक निर्धारण नहीं हो सका है। युधिष्ठिर मीमांसक । इनको वि.पू. मानते हैं। उनके अनुसार यह पाणिनीयेतर व्याकरणों में सर्वाधिक प्राचीन है। इसके मूल लेखक के विषय में तथा कर्ता के विषय में मतभेद हैं तथा कथासरित्सागर की कथा के कारण शर्ववर्म के जैन होने के विषय में पं. श्री मिलापचन्द्र कटारिया केकड़ी ने 'कातन्त्र व्याकरण के निर्माता कौन' शीर्षक से एक लेख जैन सिद्धान्त भास्कर भाग 3, किरण 2 (सन 1936) में प्रकाशित कर अनेक प्रश्न । उठाये थे। जो भी हो, जैनाचार्यों में शब्दागम (व्याकरण) तर्कागम (न्यायशास्त्र) और परमागम (सिद्धान्त) इन । तीन विद्याओं में विशिष्ट प्रावीण्य के कारण विद्य उपाधि के धारक भावसेन विद्य की इस लिखित वृत्ति तथा ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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