SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 224 समृतियों के वातायन से ट बात और ध्यान देने योग्य है कि कर्मों का विपाक (फल) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के अनुसार होता है। यह विपाक निमित्त के आश्रित है तथा उसीके अनुरूप यह फल देता है। यदि दो व्यक्तियों को एक जैसा सा वेदनीय कर्म का उदय हो और उनमें से एक धार्मिक प्रवचन या भजन सुनने में मस्त हो रहा है तथा दूसरा अकेला बिना किसी काम के एक कमरे में बैठा है तो दूसरे व्यक्ति को पहले के मुकाबले असातावेदनीय कर्म अधिक सतायेगा । इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्तित्व के निर्माण में कर्म ही सब कुछ नहीं होते हैं बल्कि आनुवंशिकता, परिस्थिति, वातावरण, भौगोलिकता, पर्यावरण ये सब मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार पर असर डालते हैं। अतः शक्ल-सूरत के निर्माण में मात्र नामकर्म ही सबकुछ नहीं होते हैं। मनुष्य के रूप-रंग पर देशकाल का प्रभाव भी आसानी से देखा जा सकता है। एक ही माता से दो बच्चे जन्म लेते हैं- एक ठण्डे देश में तथा दूसरा गर्म देश में । ठण्डे देश में जन्म लेने वाला बच्चा अपेक्षाकृत गोरा हो सकता है। इतना ही नहीं, यदि कोई व्यक्ति ठण्डे देश में रहना प्रारम्भ कर दे तो उसके रंग में भी परिवर्तन आ सकता है। विज्ञान के 'अनुसार जीन्स (Genes) तथा रासायनिक परिवर्तन भी व्यक्तित्व के निर्माण में अपना प्रभाव डालते हैं । " आयु कर्म भी एक कर्म है, लेकिन बाह्य निमित्त, जैसे- जहर आदि के सेवन से आयु को कम कया जा सकता है। इसी प्रकार यदि गुण - सूत्रों (क्रोमोसोम्स) या जीन्स में परिवर्तन कर दिया जाये तो उससे शक्लसूरत में परिवर्तन किया जा सकता है। इस प्रकार अकेले नाम-कर्म ही यह तय नहीं करता कि किसी जीव (या मनुष्य) की शक्ल-सूरत कैसी होगी, बल्कि बाह्य परिस्थितियां भी असर डालती हैं। इसमें परिवर्तन करके यदि हम एक सी शक्ल-सूरत वाले जीव पैदा करते हैं तो इसमें कर्म सिद्धांत में कोई विसंगति नहीं आती है, क्योंकि कर्मों में संक्रमण आदि संभव है। 1 अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कर्म सिद्धांत के अनुसार एक ही प्रकार की शक्ल-सूरत वाले जीव ! पैदा कर देना या क्लोनगिं के दौरान कोशिका के केन्द्रक (Nucleus) को परिवर्तित कर देना संभव है। अतः क्लोनिंग की प्रक्रिया कर्म - सिद्धान्त के लिए कोई चुनौती नहीं है। कर्म - सिद्धान्त को व्यवस्थित तरीके से समझ पर इस प्रक्रिया की व्याख्या कर्म-सिद्धांत के आधार पर आसानी से की जा सकती है। संदर्भ 1. 'From cell to cloning' by P.C. Joshi, Science Reporter, Feb, 1998 2. 'Cloning' by Damen R. Obrzowy, The New Book of Popular Science (Vol. 3), 1 Grolier Inc. (1989) 3. 'The Cell' by John Pfeiffer (2nd Edition, 1998), Lifetime Books Inc., Hongkong. 4. 'जैनधर्म और दर्शन' लेखक - मुनि प्रमाण सागर 5. 'कर्मवाद', लेखक- आचार्य महाप्रज्ञ 6. ‘क्या अकाल मृत्यु संभव है ? ', लेखक - डॉ. अनिल कुमार जैन, 'तीर्थंकर', इन्दौर, जुलाई 1994.
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy