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________________ तथा कर्म सिद्धान 223 अतः हमें गर्भ जन्म की प्रक्रिया की जैन मान्यता में इतना जोड़ लेना होगा कि गर्भ जन्म वाले जीव मादा के गर्भ से ही पैदा होंगे लेकिन वे बिना नर के सहयोग के भी पैदा हो सकते हैं। इस स्थिति में वे मादा ही होंगे लेकिन उनके पैदा होने में भी दो अलग-अलग कोशिकाओं - एक अण्डाणु तथा दूसरी अन्य, का होना आवश्यक है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भेड के क्लोन 'डॉली' का जन्म भी इसी प्रक्रिया से हुआ था । अतः उसका जन्म भी गर्भ - जन्म ही था। कुछ लोग डॉली को सम्मूर्च्छन जीवों की श्रेणी में रखते हैं, लेकिन वह बिल्कुल गलत है। डॉली भी अब एक मां बन चुकी है, वह भी सामान्य भेड़ों की तरह । यदि डॉली को सम्मूर्च्छन माना गया तो एक प्रश्न और पैदा हो जायेगा कि क्या सम्मूर्च्छन जीवों से भी गर्भजन्म होना संभव है ? यह मानना सही नहीं है कि मनुष्य को प्रयोगशाला में भी पैदा किया जा सकता है। अभी तक प्रयोगशाला में स्तनधारी जीव पैदा नहीं किया जा सका है। हां, टेस्ट-ट्यूब में भ्रूण तो तैयार किया जा सका है, लेकिन उसका विकास मादा के उदर (गर्भाशय) में ही संभव हो सका है, क्योंकि उसके विकास के लिए आवश्यक ताप, दाब तथा खुराक मादा द्वारा ही उपलब्ध कराई जा सकती है। कुछ लोग यह सोचते हैं कि भेड़ के क्लोन (डॉली) को भी टेस्ट-ट्यूब बेबी जैसा ही मानना चाहिए। चूंकि क्लोन के भ्रूण को प्रयोगशाला में (टेस्ट-ट्यूब ) में तैयार किया गया, अतः इसे टेस्ट-ट्यूब बेबी माना जा सकता है। अब एक अन्तिम प्रश्न यह रहता है कि जैनधर्म के हिसाब से जीव के शरीर की रचना उसके नामकर्म के कारण होती है। कोई जीव कैसी शक्ल-सूरत प्राप्त करेगा, इसका निर्धारण इसी नामकर्म से होता है। लेकिन यहां तो क्लोन के शरीर की रचना अब अपने ही हाथों में आ गई है। हम जैसी शक्ल-सूरत बनाना चाहें, बना सकते हैं। ऐसी स्थिति में नामकर्म की अवधारणा तो अर्थहीन ही हो गई। लेकिन यह मान्यता उचित नहीं है। वस्तुस्थिति क्या है, यह समझने के लिए हमें कर्म - सिद्धान्त पर थोड़ा ध्यान देना होगा। सबसे पहले तो हमें यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि प्रत्येक घटना मात्र कर्म से ही घटित नहीं होती है।' कर्म सब कुछ नहीं होते हैं। यदि हम कर्मों के अधीन ही सब कुछ घटित होना मान लेंगे तो यह वैसी ही व्यवस्था हो जायेगी जैसी कि ईश्वरवादियों की है कि, जो कुछ होता है वह ईश्वर की इच्छा से होता है या फिर उन नियतिवादियों की जैसी स्थिति हो जाएगी कि सब कुछ नियति के अधीन है, हम उसमें कुछ भी फेरफार नहीं कर सकते हैं। यदि कर्म ही सब कुछ हो जाये तो उनको नष्ट करने के लिए न तो पुरुषार्थ का ही महत्त्व रह जायेगा ! और न ही मोक्ष सम्भव होगा। क्योंकि जैसे कर्म होंगे वैसा उनका उदय होगा और उस उदय के अनुरूप ही हम कार्य करेंगे तथा नये कर्म का बन्ध करेंगे। इससे तो पुरुषार्थ तथा मोक्ष की बात गलत सिद्ध हो जायेगी । अतः यह तय हुआ कि कर्म ही सब कुछ नहीं हैं। कर्म एक निरंकुश सत्ता नहीं है। कर्म पर भी अंकुश है । " कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। भगवान महावीर ने कहा कि किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा। यह सामान्य नियम है, लेकिन इसमें भी कुछ अपवाद हैं। कर्मों में उदारीणा उत्कर्षण, अपकर्षण तथा संक्रमण सम्भव है जिसके कारण कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। सामान्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि पुरुषार्थ द्वारा कर्मों की निर्जरा समय से पहले भी की जा सकती है। कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाया और घटाया भी जा सकता है तथा कर्म फल देने की शक्ति ! को कुछ समय के लिए दबाया जा सकता है तथा काल विशेष के लिए उन्हें फल देने में अक्षम भी किया जा सकता है, इसे उपशम कहते हैं। जैन आचार्यों के अनुसार 'संक्रमण का सिद्धान्त' जीन ( Gene) को बदलने का सिद्धांत है।" एक विशेष 1
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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