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________________ H168 मतियों का वातावर कार्यकर्ता हैं, उन्होंने भी रूचि ली। और पत्रिका संबंधी कार्यवाही का प्रारंभ हुआ। सागर से ही यह कार्य प्रारंभ किया गया। नियमानुसार भारत सरकार के पंजीकरण कार्यालय को सात नाम भेजे गये। जिनमें 'तीर्थंकर वाणी' नाम स्वीकृत हुआ। यह नाम हमारी भावनाओं के अनुकूल होने से हमें अत्यंत प्रसन्नता हुई। प्रकाशन का कार्य सागर से ही प्रारंभ किया गया। प्रथम अंक का विमोचन भोपाल में बड़े ही उत्साहपूर्ण वातावरण में भव्यता के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री विद्याचरणजी शुक्ल के द्वारा सितंबर १९९३ में संपन्न हुआ। अनेक गण्यमान्य अतिथि, विधायक, व्यापारी, अधिकारी सम्मिलित हुए और इस प्रकार 'तीर्थंकर वाणी' पत्रिका का प्रारंभ हुआ। सेठ श्री मोतीलालजी ने बड़ी ही उदारता से प्रोत्साहन देते हुए कहा- 'पूरे वर्ष की आय ट्रस्ट की होगी और पूरा खर्च वे उठायेंगे।' इससे मेरा उत्साह बढ़ा और एक वर्ष में ही मैंने अपने श्रम, शक्ति और प्रभाव से लगभग ५०० सदस्य बनायें जिनमें संरक्षक वर्ग के सदस्य एवं आजीवन सदस्यों का समावेश था। . अमरीका की प्रवचन यात्रा सन् १९९४ में मुझे अमरीका के लगभग दस केन्द्रों पर प्रवचनार्थ आमंत्रित किया गया। मेरे लिए अमरीका यात्रा का यह प्रथम अवसर था। बड़ा ही रोमांचक और सुखद। महिनों तक उस देश की कल्पना में ही खोया रहा। अप्रैल-मई के दो महिनों में अमरीका के सेन्टरों का दौरा किया। उसी दौरान न्यूजर्सी के जैन संघ में श्वेताम्बर पर्युषण के लिए मुझे आमंत्रित किया और जूनमें लौटकर पुनः अगस्त में पर्युषणके लिए न्युजर्सी गया। वहाँ प्रवचनों से प्रभावित एवं मेरी योजना के समर्थन में लगभग तीर्थंकर वाणी के ५० सदस्य बने। इस यात्रा के दौरान मुझे लगभग १० सेन्टरों पर जाने का मौका मिला। यद्यपि सभी शहरों में कुछ न कुछ दर्शनीय स्थान होते ही हैं। श्रावक बंधुओं ने प्रायः अपने-अपने शहर के आस-पास के दर्शनीय स्थानों को बड़े ही प्रेम से और भक्तिभाव से दिखाया। केन्द्रों पर प्रवचन करने सविशेष भक्तामर एवं णमोकार ध्यान शिविर का आयोजन करने का अवसर मिला। प्रचार और प्रभाव दोनों ही उत्तम रहे। मैंने पहले से ही अहमदाबाद से सभी केन्द्रों पर फैक्स करवा दिया था कि मैं टिकट के अतिरिक्त अन्य कोई भेंट व्यक्तिगत स्वीकार नहीं करूँगा। इससे भी लोगो में श्रद्धा की वृद्धि हुई। इसी श्रृंखला में १९९५-९६-९७ में यात्रायें की। सन् १९९८ में मैंने अपनी अनिच्छा व्यक्त की। सो १९९९ में उन्होंने यह मानकर मैं नहीं आऊँगा तो निमंत्रण नहीं भेजा। जब मैंने पुनः इच्छा व्यक्त की तो सन । २००० मे दो बार जाने का अवसर प्राप्त हुआ। इसमें एकबार दशलक्षण और जैना कन्वेशन सम्मिलित है। पुनश्च २००१-२००२ (जैना कन्वेन्शन), २०००३ में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। २००४ में नहीं गया। पुनश्च २००५ में दशलक्षण और जैना कन्वेन्शन में जाने का अवसर प्राप्त हुआ और २००६ में दशलक्षण एवं । पर्युषण में क्रमशः टेम्पा (फ्लोरीडा) एवं केलिफोर्निया के लोस एन्जलिस में प्रवचनार्थ गया। इसप्रकार इन वर्षो में कुल निम्नलिखित केन्द्रों पर सत्संग, प्रवचन, शिविर आयोजित हुए। अमरीका के १९९४ से सन २००६ तक निम्नलिखित केन्द्रों पर जाकर स्वाध्याय एवं णमोकार मंत्र का ध्यान शिविर आयोजित करने का तथा जैना के द्विवार्षिक अधिवेशनों में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। यात्रा का प्रारंभ सेन्टलुईस से किया गया था। पश्चात् वोशिंग्टन डीसी, डलास, मयामी, ओकाला, ओरलेन्डो, लोस एन्जलीस, शिकागो, न्यूजर्सी, चेरीहील, न्यूयोर्क, एटलान्टा, पीट्सबर्ग, बोस्टन, ओरलिंग्टन, ह्युस्टनस
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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