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________________ अभाव संघर्ष एवं सफलता की कहानी 11231 । स्थान पर होता। घर की आर्थिक परेशानी के कारण उसका जीवन सँध गया। उसकी यह त्याग और तपस्या थी कि उसने । अपने श्रम से बड़े भाई महेन्द्र को पढ़ाने में मदद की। उसका विवाह अहमदाबाद में ही हुआ। आज वह अपनी छोटी सी दुकान और पार्ट टाईम नौकरी करके घर चला रहा है। पर बच्चों को पूरा सुख और सुविधा दी है। अभाव का जीवन मेरा बचपन आर्थिक विपन्नता में ही बीता। मुझे स्मरण है कि जब मैं प्राथमिक स्कूल में पढ़ता था उस समय अनाज, तेल, शक्कर का कंट्रोल था। रेशनींग कार्ड पर वस्तुयें मिलती थीं। उस समय लगभग (सन् १९४६४७-४८) लगभग जहाँ अब ऊषा टॉकीज है उसके सामने एक रेशनींग की दुकान थी जिसपर अनाज के नाम पर लाल ज्वार, मकई आदि मिलती थी। गेहूँ भी सड़े अधिक, अच्छे कम ही होते थे। शक्कर मुश्किल से आधा सेर (आजका २५० ग्राम) मिलती। पर उसका स्वाद हमे कम ही मिलता। वह शक्कर तो केरोसीन के लायसंस दाता या केरोसीन के व्यापारी के मुनीम की भेंट चढ़ जाती। हाँ एकबात अवश्य थी कि पिताजी इस परेशानी में भी काले बाजार से अच्छे गेहूँ लाते थे। (उस समय एक मन का भाव १२ से १५ रू. था) हाथ से दूध दोहवाते और असली घी (उस समय ४ रू. का ५०० ग्राम था) लाते। मैं प्रातः काल से रेशनींग की लाईन में पाँच-छह थेलियाँ लेकर घंटो लाईन में खड़ा रहता। कभी तो नंबर आते-आते वस्तु ही खत्म हो जाती। बचपन एक प्रकार से उन अभावो में बीत रहा था जो वर्तमान संदर्भ में अति दारूण कहा जा सकता है। खेल के नाम पर कभी कोई साधन उपलब्ध नहीं हुआ। हाँ धूल में कबड्डी जरूर खेलते थे। क्योंकि उसमें साधनों की आवश्यकता ही कहाँ होती है? जीवन १२ x १२ के कमरों में जिया जा रहा था। बाहर का १२ x ६ कमरा कम वरंडा में आधा पार्टीशन था। एक ओर केरोसीन व लारी का गोडाऊन होता। शेष आधा भाग ही आज की भाषा में ड्रोइंग रुम बना रहता। जहाँ फर्निचर के नाम पर होती एक खटिया। अंदर का एक ही कमरा दिन को रीडिंग रुम, डाइनिंग रूम सभी कुछ होता। और रात्रि में बेडरूम बन जाता। उसमें भी पार्टीशन कराया गया। ताकि मर्यादा बनी रहे। ६ x ६ का रसोई घर प्रातःकाल बाथरूम का काम करता, पश्चात रसोईघर का और रात्रि को जगह कम पड़ने पर शयनकक्ष बन जाता। पर कभी दुःख का एहसास नहीं होता। क्योंकि इससे अधिक सुख कभी देखा ही नहीं था। मुझे याद है कि हम कक्षा ५ से ७ तक रायपुर स्कूल में पढ़ने जाते जो नागौरी चॉल से लगभग पाँच कि.मी. दूरी पर था। पश्चात ८ से ११ तक की पढ़ाई हेतु भारती विद्यालय खाड़िया में पढ़ने जाते। वह भी लगभग इतना ही दूर था। हम चार-पाँच लड़के पैदल ही जाते। चप्पल या जूते का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। ब्लू चड्डी और सफेद कमीज ही हमारा गणवेश था और उस समय जब तक एक चड्डी फट न जाय तब तक दूसरी आती ही नहीं थी। अधिक से अधिक एक या दो ड्रेस ऐसे होते जो किसी प्रसंग विशेष पर उत्सव, त्यौहार या शादी में ही पहने जाते। कक्षा १०वीं में आने पर ही पिताजी ने साईकल दिलवाई। साईकल रोबीनहुड थी जो लगभग २०० रू. में आई थी। उस समय नई साईकल का आनंद आज की कार से अधिक था। चूँकि उस समय वस्तुओं के भाव भी आजकी तुलना में कल्पना के बाहर थे। अच्छा गेहूँ २० रू. मन, चावल २ रू. शेर, मूंगफली का तेल ८ आने से १ रू. सेर, घी पाँच रू. शेर, चाँदी २ रू. तोला, सोना ९६ से १०० रू. तोला और दूध ४ आने का सेर। मेरी शादी में ९६ रू. तोले के भावसे सोना खरीदा गया था। _स्कूल की फीस ६ रू. मासिक थी। वह भी समय से देना दुर्लभ था। खर्च के लिए एक आना या दो पैसे प्रतिदिन मिलते। उसमें भी दो पैसे में पेटभर चटर-पटर खाते। महिने में एकादबार इन पैसो में भी बचत करके ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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