SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1122 गये। बहिन को सौ तोले से ऊपर सोने के गहने चढ़ाये गये थे। सभी भयभीत थे। पर शाह हरदासजी बड़े ही निपुण, चाणक्य के समान चतुर थे। उन्होंने सारा ज़ेवर उतारकर चंद्रभानजी को ही पहना दिया। क्योंकि वे चंद्रभानजी को अच्छी तरह जानते थे। अब तो उल्टे चंद्रभानजी को ही पूरी रात ज़ेवर की रखवाली करनी पड़ी। विवाह सानंद संपन्न हुआ। ___ यहाँ एक बात कहना चाहूँगा कि श्री शाह हरदासजी स्वभाव से ऊपर से अति कटु, गुस्सैल एवं गाली-गलौच में माहिर थे। पर हृदय के कोमल थे जो दूसरों की मदद के लिए सदैव तैयार रहते। उनका दबदबा ललितपुरमें इतना था की पूरा जैन समाज ही नहीं सभी उनका रोब मानते थे। और इसीलिए वे जगत 'कक्का' कहलाते थे। शायद दो-तीन दर्जा ही पढ़े थे। पर अपनी कार्यक्षमता से वर्षों तक ललितपुर की म्युनिसिपालिटी में चुने जाते | रहे। अनेक कमीटियों के चेयरमैन रहे। हमारी बहन को कभी भी उन्होंने कोई कष्ट नहीं होने दिया। उनके स्वभाव { के विपरीत मेरे बहनोई बाबू कपूरचंदजी एडवोकेट क्षमा और सरलता के प्रतीक रहे। पिता-पुत्र के स्वभाव में अजीब भिन्नता ! ___ मेरे लिए वे सदैव प्रेरणास्रोत रहे। मैं आज जीवन में जो कुछ भी बन पाया उसमें श्री शाह हरदासजी एवं बाबू । कपूरचंदजी की बड़ी ही अहम् भूमिका रही है। सन् १९५८ में जब मैं सावित्री को लिवाने गया तो उन्होंने कहा ! था 'देखो बेटा! कभी किसी से काका-बाबा मत कहना। हमेशा बाप बनने की कोशिश करना। काका-बाबा कहोगे तो लोग तुम्हें तुच्छकार से काम करने का आदेश देंगे। पर बाप बनना सीखोगे तो लोग हाथ जोड़कर पूछेगे कि पिताजी क्या आज्ञा है?' उनकी यह शिक्षा एवं आगे चलकर दिनकरजी की रचना का ओज़ मुझे स्वाभिमानी । स्वावलंबी बनाने में सहायक हुआ। यद्यपी लोगों ने इसे मेरा जिद्दी होना ही बताया। ___ मेरी दूसरी छोटी बहन पुष्पा जो बी.ए. के द्वितीय वर्ष में थी उसका विवाह सन् १९६९ को बबीना में किया । गया। उसके श्वसुर श्री लक्ष्मीचंदजी ठकुरई गाँव के शाहुकार और जमीदार थे। जमीने तो सेना की चाँदमारी में जाने से उन्हें गाँव छोडकर बबीना आना पड़ा। लंबा छह फट का स्वस्थ शरीर, बडी मछे, बंदक के साथ चलने वाले, दबंग व्यक्तित्व के श्री लक्ष्मीचंदजी की एकाएक धर्म के प्रति अध्ययन और रूचि बढ़ने लगी। अतः सबकुछ त्यागकर वे संस्कृत एवं आगम ग्रंथों के स्वाध्याय में समर्पित हो गये। उनका ज्ञान इतना बढ़ा कि मुनियों को भी वे पढ़ाने लगे। पुष्पा का विवाह इन्हीं के पुत्र श्री प्रकाशचंदजी से हुआ। प्रकाशचंदजी यद्यपि एलएल.बी. तक पढ़े हैं। प्रेक्टिस का प्रयत्न भी किया पर प्रेक्टिस न करके सरकारी नौकरी में गये और आज सीनीयर फूड इन्स्पेक्टर के पद पर हैं। मेरे छोटे भाई महेन्द्र ने प्रथम वर्ष बी.एस.सी. किया और उसे थोड़ा बहुत डोनेशन देकर उज्जैन की आयुर्वेदिक कॉलेज में दाखला दिलवाया गया। और उसने वहीं से बी.ए.एम.एस. किया। वह स्वभाव से कुछ स्वाभिमानी या जिद्दी रहा। उसके विवाह के कई प्रस्ताव आये। पर उन्हें ठुकराता रहा। आखिर हम लोगों के दबाव से वह विवाह के लिये तैयार तो हुआ पर उसने कहा कि “अब वह लड़की देखने नहीं जायेगा। हमलोग जो तय करेंगे उसे मंजूर होगा।" आखिर हम पति-पत्नी मंडी बामौरा लड़की देखने गये। हमने श्री शाह भगवानदासजी की सबसे छोटी पुत्री चंद्रप्रभा को देखा। लड़की भी पढ़ी लिखी थी। हमने बिना किसी दहेज माँग के शादी तय कर दी। ___ सबसे छोटा भाई सनत जिसे पढ़ने का कम ही मौका मिला। पिताजी की बीमारी, घर का खर्च चलाने हेतु वह पिताजी के साथ फेरी को जाता, दुकान चलाता, बचे-खुचे समय में पढ़ने जाता। इन्हीं परेशानियों के कारण वह बी.कॉम में अच्छे अंक नहीं ला पाया। यदि मैंने उस ओर महेन्द्रकी तरह ध्यान दिया होता तो आज वह सबसे अच्छे
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy