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________________ 118 छोटा था तबसे गाँव के पास सड़क बनने का कार्यक्रम बना था जो आजतक पूरा नहीं हो पाया। हमारे सांसद, विधायक को अपना घर भरने से समय मिले तब तो सड़क का काम करें! तात्पर्य कि गाँव पहुँचना अर्थात् गुलीवर की यात्रा करना जैसा था। ___ मेरा गाँव बहुत छोटा, पिछड़े इलाके का, जहाँ आज भी सड़क नहीं बन पाई। गाँव में दो-चार हम लोगों के पक्के घर, बाकी सब कच्चे घर।गाँव में एक ब्राह्मण का घर, एक ठाकुर का घर, तीन जैनों के, शेष में सर्वाधिक यादव लोगों की आबादी वाले कच्चे घांसफूस के छप्पर थे। हमारा घर गाँव के बीचोबीच सबसे बड़ा। सामने ही सघन वृक्ष की छाया में बना चबूतरा जिसे बुंदेलखंडी में 'अथाई' कहते हैं वहाँ प्रायः शाम या दोपहर सभी लोग अपनी-अपनी जाति की हैसीयत से बैठते। ठंडी के दिनो में (दिवाली की छुट्टियों में) खेतों में मटर और चना तोड़कर खाते तो कभी गन्ने का रस और कभी गुड़ भी खाते। गरमी के दिनो में रहँट पर खेत में नहाने जाते और ताजे महुओं को चूसने का आनंद लेते। रात्रि में कटे धान की लोग रखवाली करते या दाँय करते (अनाज को साफ करने की क्रिया)। इसी दौरान रात्रि में ग्रामनृत्य 'राई या रावला' होता। जिसमें कभी धार्मिक कथायें होती तो कभी सामाजिक तो कभी भौडे दृश्य। गाँव के लोग जुटते। मैं उन जुटे हुए लोगों में देखता कि आधे से अधिक लोगों के तन पर कोई कुर्ती तक नहीं। धोती भी चीथड़ों से भार से लदी है। ठीक वैसे ही जैसे किसान हम लोगों के कर्ज से लदे रहते। हमारे दादाजी की दुकान थी। अनाज और घी के बदले उन्हें आवश्यक सामग्री देते। वास्तव में हमलोग उनसे मनमाना भाव लेते थे। मेरे दादाजी को सभी साव दद्दा कहते। ठंडी में रात को अलाव जलता, गाँव के बच्चे-जवान-बूढ़े सभी समूह में तापते और दद्दाजी कहानी सुनाते। एक बार गाँव में मैंने होली का हुडदंग भी देखा। कीमती रंग तो वहाँ नहीं थे, पर कीचड़-गोबर और थोड़े से गुलाल में भी गाँव के लोग खुश थे। सभी में परस्पर अच्छा भाईचारा था। गाँव । के पास तालाब-जो कभी भरा देखा था- अब तो सूखा पड़ा है। हाँ सुना है प्रतिवर्ष तालाब खोदने की सरकारी ग्रांट का धन अवश्य आता है पर वह तालाब की जगह नेताओं के गढे भरता है। तालाब के पास घने चार-पाँच वटवृक्ष जिसकी छाया में जुगाली करती गायें और बेकार युवक और बच्चों की भीड़ आराम करती या खेलती। लोग जंगल से लकड़ी काटकर लाते और ईंधन प्राप्त करते। एकाद बार मैं भी छोटी सी कुल्हाड़ी लेकर जंगल से लकड़ी काटकर शिरपर रखकर लाया हूँ ऐसा स्मरण है। हाँ गाँव छोटा पर डाकुओं का भय बड़ा। उसके हम भुक्त भोगी रहे जिसका ऊपर उल्लेख कर चुका हूँ। सन् १९७२ में मेरे चाचा चौधरी छक्कीलालजी ने गाँव में सिद्धचक्र विधान कराया था तब आठ-दस दिन गाँव में बड़ी धूम रही। फिर लगभग बीस वर्षों तक गाँव जाना नहीं हुआ। फिर एक-दो बार कुछ घंटों के लिए ही गये। सन् ९५-९६ के करीब हम अवश्य एक दिन के लिये पैतृक जमीन बेचने गये फिर राम..राम...। एक घर तो हमारे छोटे चाचा बेच ही आये थे। दूसरे हमने पिताजी के मौसी के लड़के को किराये पर दुकान चलाने दिया था सो वे मर गये। सुना है उनके लड़के ने घर बेचकर रू. हड़प लिये। आज भी गाँव की याद आती है। भले ही बुजुर्ग लोग अब नहीं रहे हैं। सुना है गाँव की भी कुछ प्रगति हो रही है। आज भी गाँव जाने का मन होता है। बस परेशानी है समय की कमी और शारीरिक अशक्ति। याद आती है वहाँ की ताजी सब्जी जो लोग चाह से बुलाकर देते। महुओं की सुगंध और बेर-मकोरे का स्वाद । डाली से आम तोड़कर खाना और गरीबी में भी लोगों की मस्ती।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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