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________________ 264 घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिस्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। इतना ही नहीं, अनेकान्त संशयवाद है इसका भी निराकरण पूर्वमीमांसा ने सबल शब्दों में किया वस्त्वनेकत्वाच्च न सन्दिग्धा प्रमाणता ज्ञानं सन्दिह्यते यत्र तत्र न स्यात् प्रमाणता । इहानेकान्तिकं वस्तु इत्येवं ज्ञानंन सुनिश्चितम् ।। ( मीमांसा श्लोकवार्तिक, वनवाद ७५ - ७९) वेद भाष्यकार सायणाचार्य ने यह प्रश्न अपनी भाष्यभूमिका में बहुत विस्तार से उठाया है कि वेद में परस्पर विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक वाक्यों में सामद्रज्जस्य स्थापित करना भाष्यकार का दायित्व है । कहीं 'एक एव रुद्रः' ( तैत्तिरीय संहिता १.८.६१) कह दिया गया है तो कहीं 'असंख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधिभूम्याम्' (यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता, १६.५४ ) कहा गया है । यह प्रश्न यास्काचार्य ने 'निरुक्त' में. भी उठाया और जैमिनी ने भी उठाया । दयानन्द भार्गव संक्षेप में हम महर्षि अरविन्द के शब्दों में कह सकते हैं कि 'जीवन की सभी समस्याएँ तत्त्वतः सामज्जस्य की समस्याएँ है' (दिव्य जीवन, पृ. ४) जैन आचार्यो ने इस सामज्जस्य को स्थापित करने का प्रयत्न अनेकान्तवाद के माध्यम से किया किन्तु यह प्रयत्न अन्य दर्शनों में भी अनेकान्त के माध्यम से किया गया । यही अनेकान्त की व्यापकता है । इस लेख में हमने अपने को भारतीय दर्शनों तक सीमित रखा है किन्तु यदि अन्य दर्शनों में भी देखें तो अनेकान्त के बीज मिलेंगे । जैनेतर ग्रंथो में अनेकान्त के समर्थन हेतु तुलनीय हैं निम्न ग्रंथ १. महाभाष्य, पस्पशायिक पृ. ८४-८५ २. योग सूत्र, व्यासभाष्य पृ. १३ ३. वात्स्यायन, न्यायसूत्र १.१.४१ ४. शांकरभाष्य, तैत्तिरीयोपनिषद् २.६.३ ५. शास्त्रदीपिका, पृ. १०१ -
SR No.012079
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages360
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size8 MB
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