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________________ अनेकान्त की व्यापकता ९. सन् २०१० में एक विचित्र परीक्षण हुआ । बेरेलियम नाम की धातु के एक कण के बारे में यह पाया गया कि वह कण युगपद् ऊपर-नीचे अथवा दाँये-बाँये गति कर सकता है । एक ही कण एक ही समय में एक साथ दो विपरीत दिशाओं में गति करे यह स्थिति तर्क की पकड़ से परे की है । जब यह स्थिति मैंने कुछ चिन्तकों के सामने रखी तो उन्होंने कुल मिलाकर यही कहा कि ऐसा नहीं हो सकता; वैज्ञानिकों को धोका हुआ 'है । किन्तु वैज्ञानिकों का स्पष्ट और दृढ़ मत है कि ऐसा ही है। यह अटपटी (Bizzare) स्थिति वास्तविक है, दृष्टि का भ्रम नहीं है । यह स्थिति जैन आचायों के भी सामने नहीं आयी थी । अब तक हम प्रकृति से परे को ही अचिन्त्य मान रहे थे - - अचिन्त्याः खलु ये भावा न ताँस्तर्केण योजयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यच्च तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ।। अब स्थिति यह कि प्रकृति भी अचिन्त्य हो गयी है । यह अनेकान्तवाद भले न हो, अनेकान्त तो है ही कि एक कण में युगपद् दो परस्पर विरुद्ध गतियाँ देखने में आ रही हैं । यह अनेकान्त का एक नया ही आयाम सामने आया है जिस पर न जैन, न वेदान्ती और न ही बौद्ध चिन्तकों ने विचार किया है । 263 १०. वेद के नासदीय सूक्त के सामने अवश्य कुछ ऐसा रहा होगा जिसके लिये ऋषि को कहना पड़ा कि पता नहीं परमात्मा को भी सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य विदित है या नहीं है। योsस्या अध्यक्षः परमे व्योमन् । सो अंग वेद यदि वा न वेद ।। ११. हमनें अन्यत्र जैनेतर भारतीय दर्शनों में अनेकान्त के बीज खोजे हैं। वस्तुवादियों में सबने अनेकान्त का स्वीकार किया है किन्तु भेद और अभेद के बीच वैशेषिक दोनों को मानकर भी भेद को मुख्य मानता है, जबकि सांख्य दोनों में अभेद को मुख्य मानता है। जैन भेद-अभेद दोनों को समान 'महत्त्व देता है। डॉ. वाई. जे. पद्मरज्जैया ने अपने ग्रंथ Jaina Theories of Reality and Knowledge में इस विषय पर विस्तार से प्रामाणिक रूप में विचार किया है । - तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्यस्तु त्रयात्मकम् तुलनीय है शास्त्रवार्तासमुच्चय (७.४७८) हमारा निष्कर्ष यह है कि जैन सम्मत अनेकान्त तो एक वाद के रूप में हमारे सामने है जो केवल जैनदर्शन तक ही सीमित है किन्तु वाद-मुक्त अनेकान्त बहुत व्यापक है। वैदिक परम्परा में भी 'असच्च सच्च परमे व्योमन्' (ऋग्वेद १०.५.७) उभयं वा एतत्प्रजापतिर्निरुक्तञ्चार्निरुक्तंच' । 'निरुक्तं परिमितमनिरुक्त मपरिमितम्' (शतपथब्राह्मण ६.५.३.७ ) ' तथा ' तस्य ह प्रजापतेरर्धमेव मर्त्यमासीदर्धममृतम्' (शतपथब्राह्मण १०.१.३.२ ) ' आदि वाक्य स्पष्टतः अनेकान्त का प्रतिपादन कर रहे है' । दार्शनिक युग में पूर्वमीमांसकों ने अनेकान्त का न केवल प्रतिपादन किया प्रत्युत नामतः भी अनेकान्त का स्मरण किया । मीमांसाश्लोकवार्तिक (वनवाद, २१.२२.२३) का निम्न श्लोक देखें - । वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा
SR No.012079
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages360
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size8 MB
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