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________________ अनेकान्त की व्यापकता 261 अद्वैतवार्दी व्यवहार में भी अद्वैत का अनुमोदन करे । (तुलनीय अपृमीमांसा, ४ पुण्य पाप क्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फले कृतः बन्धमोक्षौ तेषां न येषां त्वं नासि नायकः) वस्तुस्थिति यह है कि आचार के क्षेत्र में जिस प्रकार जैन अहिंसा, संयम और तप की बात करता है अद्वैतवादी भी इसी प्रकार 'इहामुत्रार्थभोगविराग' और 'शमदमादि षट सम्पत' की बात करता है । कारण यह है कि क्रिया अर्थात व्यवहार में तो अद्वैतवादी भी द्वैतवाद का पालन करता है, दूसरे शब्दों में वह भी व्यवहार की अपेक्षा से अनेकान्ती ही है । रहा प्रश्न परमार्थ का सो अद्वैतवादी के लिये श्रुतिका ‘एकत्वमनुपश्यतः' वचनंप्रमाण है, वहाँ परमार्थ में वह एकान्त का ही समर्थन करता है । इस प्रकार वेदान्ती के अनेकान्त का अनेकान्त यह बनेगा कि - व्यवहार की अपेक्षा अनेकान्त है । परमार्थ की अपेक्षा अनेकान्त नहीं है । अनेकान्त' को 'अनेकान्तवाद' न बनायें तो उपर्युक्त वक्तव्य सापेक्ष होने के कारण अनेकान्त की सीमा में आ सकते हैं । किन्तु अनेकान्तवादी जैन को अनेकान्त में ऐसी सापेक्षता स्वीकार नहीं है । ठीक भी है; यदि जैन भी ऐसा अनेकान्त स्वीकार कर लेगा तो उसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं रहेगा । समयसारकलश - ६. ऐसा नहीं है कि जैन मनीषियों ने वेदान्ती की इस स्थिति को न समझा हो । 'समयसारकलश' का एक श्लोक है - उदयति न नय श्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् । किमधिकमभिदध्मो धाम्नि सर्वकषेऽस्मि ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।। कठिनाई यह हुई कि जैसे ही जैन मनीषी ने अद्वैत की स्थिति समझनी चाही, उसे भी द्वैत का भान ही होना बन्द हो गया - भाति न द्वैतमेव । प्रमाणातीत - ७. अस्तमेति प्रमाणम् । जब प्रमाण अस्त होता है तो दो सम्भावनायें रहती हैं - या तो हम अप्रामाणिक हो जाते हैं - Illogical हो जाते हैं या प्रमाणातीत हो जाते हैं - Supra Logical हो जाते हैं। आगम प्रमाण अनुमान-प्रमाण के आधीन नहीं है कि आगम की हर बात अनुमान या तर्क द्वारा सिद्ध ही जायें । आगम एक स्वतन्त्र प्रमाण है जिसका आधार पारमार्थिक प्रत्यक्ष है जिसे वैदिक परम्परा जानती है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष इन्द्रियातीत है जबकि अनुमान का आधार इन्द्रियों द्वारा किये जाने वाले 'भूयोदर्शन' के बल पर प्राप्त व्याप्ति का ज्ञान है । दोनों का भिन्न क्षेत्र है । प्रमाण व्यवस्था यह होगी कि पारमार्थिक प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त ज्ञान को बतलाने वाला आगम सदा निर्दोष रहेगा, जबकि इन्द्रियजन्य ज्ञान पर टिकने वाला अनुमान सदा हेत्वाभास की शंका से ग्रस्त रहता है । अतः अनुमान या तर्क के आधार पर आगम की साधुता-असाधुता का निर्णय नहीं हो सकता ।
SR No.012079
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages360
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size8 MB
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