SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 260 दयानन्द भार्गव जा सकता है इसीलिए हम माया को सदसदनिर्वचनीय मानते हैं । इसमें जैन की सप्तभंगी के तीन मूल भंग समाविष्ट हैं । माया प्रतीति में आती है अतः वह सत् है किन्तु वह विलीन हो जाती है, इसलिये असद् है । और, क्योंकि सद् असद् युगपद् नहीं रह सकते इसलिए माया अनिर्वचनीय है । 'तदेव मायाया मायात्वं यत्तर्कासहिष्णुत्वम् ।' तर्क की कसौटी पर माया को नहीं कसा जा सकता क्योंकि तर्क की माँग है कि माया या तो सत् हो या असत् किन्तु यह दोनों है अतः इसे तर्क की कसौटी पर नहीं कस सकते। जैसे कि कहना है कि वेदान्ती जिसे असत् कह रहा है वह तो परिवर्तन अर्थात् उत्पाद व्यय है और जिसे वह सत् कह रहा है वह ध्रुवता है । उत्पाद व्यय और ध्रुवता तो सदा ही साथ साथ रहते हैं । यही सत् का लक्षण है 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' । हो यह रहा है कि वेदान्ती सत् का लक्षण पहले निर्धारित कर लेता है जो सर्वथा ध्रुव हो और फिर जगत् को मिथ्या घोषित कर देता है। सत्य की तरतमता - ४. डॉक्टर डी. एस. कोठारी सत्य और मिथ्या की सापेक्षतापरक एक दूसरी व्याख्या करते हैं । जब तक जल जल रूप में है तब तक जल सत्य है । किन्तु जैसे ही जल ऑक्सिजन और हाइड्रोजन में बदल जाता है, वह मिथ्या हो जाता है और ऑक्सिजन तथा हाइड्रोजन सत्य हो जाते हैं । किन्तु जैसे ही ऑक्सिजन तथा हाइड्रोजन क्वान्टम अर्थात् ऊर्जा में बदलते हैं वैसे ही क्वान्टम सत्य हो जाता है तथा ऑक्सिजन और हाइड्रोजन मिथ्या हो जाते हैं । इस प्रकार हम एक सत्य से दसरे सत्य की और चलते हैं: न कि असत्य से सत्य की ओर | पण्डित मधुसूदन ओझा इसे दूसरी दृष्टि से इस प्रकार कहते हैं कि मिथ्या में सत्य और असत्य का मिथुनीभाव रहता है । मिथ्या अलीक का नाम नहीं है अपितु सत्यासत्य के मिथुनीभाव का नाम है । आचार्य शंकर भी ‘सत्यानृते मिथुनीकृत्य जगत्प्रवर्तते' कहकर जगत् के मिथ्यात्व की ऐसी ही व्याख्या कर रहे प्रतीत होते है । सत् का लक्षण - वेदान्ती के विपरीत जैन जगत् को सत्य पहले मान लेता है और क्योंकि जगत् उत्पाद व्यय ध्रुवात्मक है अतः वह सत् का लक्षण भी उत्पाद व्यय ध्रुवात्मकता कर देता है । अभिप्राय यह हुआ सत् के लक्षण के सम्बन्ध में मतभेद होने के कारण यह मतभेद हो जाता है कि जगत् सत् है या नहीं । जिन दर्शनों ने भी जगत् को सत्य माना उन्हें एक न एक रूप में अनेकान्त को मानना ही पड़ा क्योंकि जगत् है ही त्रयात्मकता ऐसे दर्शनों में सभी वस्तुवादी दर्शन शामिल हैं, यथा पूर्वमीमांसा, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक तथा चार्वाकी । जिन्होंने जगत् को वास्तविक नहीं माना उनके लिये जगत् का त्रयात्मक होना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता क्योंकि उनकी दृष्टि में जगत् वास्तविक है ही नहीं । फिर भी जो प्रतीति में आ रहा है उसका सर्वथा अपलाप नहीं किया जा सकता । अतः प्रत्ययवादियों ने भी व्यवहार में तो अनेकान्त को स्थान दे ही दिया । वेदान्त का अनेकान्त - ५. अद्वैतवादियों ने अद्वैत की भी एक सीमा बाँधी - भावाद्वैत सदा कुर्यात् क्रियाद्वैतं न कर्हिचित् । क्रिया में अद्वैत नहीं है । द्वैतवादियों ने अद्वैतवाद पर जितने आरोप लगाये वे ये मानकर लगाये कि
SR No.012079
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages360
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy