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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१५ क्षुल्लकों के दर्शन तो किए थे, किन्तु किसी आर्यिका क्षुल्लिका के दर्शन कभी करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था। जयपुर के मेंहदी चौक में बख्सीजी की जैन धर्मशाला में संघ की आर्यिकाएं ठहरी हुई थीं, मैं भैया के साथ वहाँ पहुँची, लेकिन अभूतपूर्व आर्यिकाओं का वेश (मुंडे हुए केश आदि) देखकर मैं समझ न सकी कि ये कैसी साध्वी हैं। एक कमरे में प्रवेश करने पर भैया ने कहा ये हमारी बहन ज्ञानमती माताजी हैं इन्हें नमस्कार करो। वे फल चढ़ाकर 'नमोस्तु' करके माताजी के चरण स्पर्श करते ही रो पड़े, यह शायद खून का सम्बन्ध और पूर्व में प्राप्त बड़ी जीजी के स्नेह का स्मरण था, किन्तु मुझे ऐसा कुछ भी रोमांच नहीं महसूस हुआ। मैंने शायद नमस्कार तो किया ही होगा, किन्तु तुरन्त वहाँ से अज्ञात भय के कारण मैं भागी और धर्मशाला के बाहर आकर मुझे हंसी आ गई। मैंने भाभी से कहा- ये ऐसी क्यों रहती है? भला यह हमारी जीजी है, भैया कहीं भूल तो नहीं गए हैं ? आज जब मैं अपने उस अतीत का अवलोकन करती हूँ तो प्रतीत होता है कि कैसी तीव्र अज्ञानता थी मुझमें। मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि जिस माता से मुझे आज डर लग रहा है मैं उन्हीं माताजी के पास रहकर एक दिन उनके समान ही वेश को धारण करूँगी। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने भैया से जान लिया कि यह छोटी बहिन माधुरी है और संघ के वातावरण से पूर्ण अपरिचित है तो वे दूसरे दिन से मुझे अपनी ब्रह्मचारिणी शिष्याओं से बुलवाने लगीं। एक-दो दिन तो मैं मात्र दूर से दर्शन करके ही वापस आ गई, फिर माताजी के बार-बार वात्सल्यमयी संबोधन ने मुझे कुछ आकृष्ट करना शुरू किया। एक दिन उन्होंने मेरी लौकिक पढ़ाई के विषय में मुझसे पूछताछ की, मैं उस समय कक्षा ७ में पढ़ती थी और यहाँ तो मात्र ८-१० दिन के लिए आई थी। अगले दिन माताजी ने मुझसे शायद परीक्षा की दृष्टि से गोम्मटसार जीवकांड की एक प्राकृतगाथा पढ़वाई, मेरे शुद्ध पढ़ देने पर वे बहुत खुश हुईं। फिर उन्होंने मुझे उस बाल्यावस्था में ही जयपुर में ८ दिन के अन्दर ३४ गाथाएं पढ़ाईं जिन्हें मैंने कण्ठस्थ कर लिया। आज मुझे प्रसन्नता है कि मेरे धार्मिक जीवन की मजबूत नींव उन ३४ गाथाओं ने मुझे नारी जीवन की सर्वोच्च मंजिल पर पहुंचा दिया है। सांसारिकता, अज्ञानता और बाल चंचलता मुझमें कितनी अधिक थी, यह बात अब मुझे महसूस होती है। उस प्रथम दर्शन की अल्पावधि में ही पूज्य माताजी ने मुझे अपने पास रखने के कई प्रयास किये। एक दिन मेरी कुछ इच्छा भी हुई जब माताजी ने कहा कि मन न लगने पर मैं तुम्हें घर भिजवा दूंगी। किन्तु संघ में रह रहीं एक ब्र० बहिन ने मुझसे कहा- माधुरी! तुम्हें टॉफी, बिस्कुट का इतना शौक है दिन भर खाती रहती हो, यहाँ रहने पर माताजी तुम्हें यह सब कभी नहीं खाने देंगी। पहले से ही भयाक्रान्त बालिका के लिए इन शब्दों ने मानो निर्णय लेने का ही कार्य किया और मैंने सोच लिया कि मुझे यहाँ नहीं रहना है। माताजी तो जान भी न सकीं कि इसे किसी ने कुछ कहा है। खैर! होनहार को कौन रोक सकता है। मैं उस समय पूज्य माताजी के वात्सल्य को ठुकराकर भले ही घर चली आई, किन्तु हृदय से उनकी मोहक छवि न हट सकी। सन् १९७१ में अजमेर चातुर्मास के मध्य माँ के संग आकर मैंने सुगंधदशमी के दिन माताजी से ही छोटे धड़े की नशियां में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लिया, तब मेरी उम्र लगभग १३ वर्ष की थी। उस समय भी संघ में रहने वाली ८-१० कुमारी कन्याओं को हर वक्त पठन-अध्ययनरत देखकर ही मेरे ऐसे भाव बने थे। माताजी के द्वारा बार-बार सीमित वर्षों तक व्रत लेने को कहे जाने पर भी मैंने बिना माँ की आज्ञा के आजन्म ब्रह्मचर्य स्वीकार किया था और उस समय मेरी यह दिली इच्छा थी कि जीवन में एक ही गुरु बनाऊंगी। मेरी वह भावना भी साकार हुई, मैंने जीवन में छोटे-बड़े सभी नियम पूज्य माताजी से ही ग्रहण किए हैं। कई बार किन्हीं आचार्य, मुनि अथवा आर्यिकादि ने कुछ नियम, व्रत लेने को बाध्य भी किया, उस समय थोड़ी आनाकानी करने के बाद मुझे स्पष्ट करना पड़ता कि आप मेरे लिए परमपूज्य हैं, किन्तु नियम मैं एक ही गुरु से लेने हेतु संकल्पित हूँ। मुझे इस बारे में माताजी ने कभी मना नहीं किया कि तुम किसी से नियम मत लो, किन्तु ये विरासती संस्कार ही मेरी भावना की उपज में कारण थे। आज भी मेरा यही श्रद्धान है कि "जीवन में मूलगुरु एक ही बनाना चाहिए" किन्तु पूज्य भाव सभी साधुओं के प्रति होना चाहिए। इस प्रकार क्रम-क्रम से मेरे जीवन का उत्थान हुआ है। ४-५ वर्षों से मेरी हार्दिक इच्छा थी कि पूज्य माताजी के ही करकमलों से मैं आर्यिका दीक्षा ग्रहण करूँ। १३ अगस्त सन् १९८९, श्रावण शुक्ला एकादशी को मेरी वह इच्छा भी पूर्ण हुई जब गणिनी आर्यिका श्री ने मुझे हस्तिनापुर में दीक्षा देकर "आर्यिका चन्दनामती" बनाया। मेरी २१ वर्षों की बालतपस्या सार्थक हुई, अब मुझे उनके सान्निध्य में स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन आदि में परम आनन्द की अनुभूति होती है। आपके समान गुरु की छत्रछाया मुझे भव-भव में प्राप्त होती रहे, इसी हार्दिक भावना के साथ आपके श्रीचरणों में सिद्ध, श्रुत, आचार्यभक्तिपूर्वक वन्दामि करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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