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________________ विषय खंड जैन गीतां री रसधारा २८५ पदमपरभु, स्थूलभदर वगेरे घणां आयध्य देवो त अणगिणत गीत जैन कवियांने साचै भगतां रै भावां तूं मारमिक सुरा म्हें माया हैं। गीतकारां म्हें लावण्यसमय, समयसुन्दर, कनकसोम, जसराज, महिमराज, पदमराज, चिदानंद, भुवन कीरती, ग्यानकौरती, उदयरतन, धरमसी नै वीजां अनेक कवियांने इण धारा नै घणी वार लहरायी है। या कीती अचरज री वात कि हाल ताई कोई काव्य रो, संगीतं रो सियों को भागतीपारखीण रस धारा से मिठास चाख्यो नहीं। मिनखां रै वास सूं दूर, अणछेडी वणराय है आंचल म्हें जाणे कोई एकलो रस रोझरणो झरझर करतो बहै तिण भांत ही जैन गीतां री या रसधार है। इण वात री घणी जरूरत है कि साहित्य रा मालोचक आज रा काव्यरसियां ने भी उण गीतां रा मिठास री बानगी चखावै । ___ भगती काव्य रै गीतां री तरियां इण गीतां री भी अनेक भांत हैं। विविध रागां म्हें, विविध छन्दा म्हें, आराध्य देवां रा जनम, वालपणे री करिडा, देवां रा सा रितर, उणां रो परेम, विरह आदि नै ग्यान, उपदेस अर भगती-भाव रो चितरण घणो सरस नै सरल भासा म्हें इण गीतां म्हें मिले है। गीतकारां म्हें समयसुन्दर जिसा महारथी नै चौफेरी परतिभा हाला कवि इण धारावां रा धणी हैं । जिणां री विदवता रौ धाक आखै जमाने म्हें हुती । इण खातर जैन गीतां रै मायला भाव, कल्पना, उपमा, भासा नै विजा काण्य रा आभूसण उण पिटी-पिटाई परिपाटी रा नहीं । इण सारी चीज़ा में कवियां रै जुग री नै उणां री रसमरम री छाप है, जिण सू वै भेडा भेली भेड़ नहीं हुवै । भारतीय परेमकाव्य रै विछड्या परेमियां रा जाणीता संदेसवाहक 'चांद' रै हाथ भेजो जिको भगत रो सनेसो। सुणो-चांदलिया ! संदेससडो जी कहिजे सीमंधर साम । राय नै पाल्हा घोड़लाजी, वेपारी ३ वाल्हा दाम । अम्हनें वाल्हा सीमंधर सामी, जिम सीता नै राम ॥ ___ संनेसै रै सब्दां रै मिठास नै छोड़ विचले जुगारी ओपमावां री मौलिकता नै देखण री जरुरत है । भारतीय दामपत्य जीवन रै आदर्श नै गीतकार विसारया नहीं। राम अर सीता रो सनातन नै चिरनवो परेम भगता रै परेम रो पण आदर्स है । __ आराध्य देव ने ओपमा देतां - देतां अघाई जो ग्या जणा महाकवि समयसुंदर सगलै रह कर 'र छोड़ दिया। सूर एकर स्याम नै ओपमा देतां वखत घणां उपमानां नैं बेकाम किया, पण आखर वा नै अक ओपमा जंची पण समयसुन्दर रै एक भी ओपमा गलै न उतरी। भावा रे वेग म्हें उणां गायो भहो मेरै जिण कुंकूण ओपमा कई कास्ट कल्प, चिन्तामणि पाथर, काम गवी पसुदोस पहूं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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