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________________ जैन गीतां री रसधारा (ले- श्री रावत सारस्वत ) जैन धरम की भांत - भांत की अणगणित जैन पोथ्यां को महत्त्व अबार कोई छिपी बात रही कोनी । संस्कृत, मागधी, अपभ्रंस अर आजरी प्रादेशिक बोलियां म्हें जैन साहित्य का ग्रन्थ हजारां की गिणती में मिले हैं । वखत के धक्कै सू जैन भंडारा का वरसां सूं जडयोड़ा किंवाड़ खुलता ही ग्यान की दुनियां म्हें एकै सागै सैस दीया जुपगा, सँचत्रण होगी। आज दुनियां का इतिहासग्य अर भासावैग्यानिक या वात मानण लाग गया कि जैन ग्रंथ हजारां वरस पहलां रै इतिहासका नै भासा की जानकारी का घणा अच्छा साधन हैं। इण बाई को कई कारण है ? भगवान महावीर के वखत सूं ही जैन धरम के आचारजांरी या रीत रहती आयी है कि वे लोकभासा म्हें ही उपदेश देवै नै उणी म्हें रचना पण करे । लोक-गीतां की धुना पर वणायोडा हजारां भगती-गीत इण वात का प्रमाण हैं कि धरम-प्रचार म्हें लोकभासा को महत्त्व उणा की द्रस्टि में कितरो बढ़यों- चढ़यों थो। पचासौ साधू अर सत्यां आचारजां₹ आदेस तूं एक ठोड़ सूं दूजी ठोड़ जावतां, सैकड़ा कोस धरती पगां सं नापता. गांव-गांव म्हें ठेर नै सरावका नै उणां री बोली म्हें उपदेश देव नै समझावतां । इण खातर उणां नै लोक - भासा में लिख - पढ़णा रो घणो महावरो होतो। हजारां कोसा लग फैली भारत-भोम रे कूणै-कूणै सूं भगत लोग आचारजां रै चौमासै रै नै बिहार री ठोड आ जुडता । भांत-भांत रा उपदेसां सूं लोगां नै पढण-लिखण री घणी परेरणा मिलती। भाप-आप री रचनानै दिखायनै चेला पण आचारजरे आसीरवाद री कामना करता । अस्या सांस्कृतिक मेळाम्हें घणी पोथ्यां रो परिचय मलतो । लोगों ने पढण रो चाव वढतो । पोयां री नकल करवा री नै कराबारी घणी चाह रेती । इणी खातर नित कई पानां री नकल करणो भी धरम रो ही एक काम बणगो । अनेक कवियां, लेखकां, इतिहासकारानै अनेक भांत रा साहित्य री रचनां करी जिणारी अनेक नकलां आज रा भंडार ठसाठस भरयोड़ा हैं। भासा अर इतिहास री द्रस्टि सूं जैन ग्रंथा रो महत्व घणा विद्वान जाणे । काव्यग्रंथारी जाणकारी भी लोगां नैं कम कोनी । पण भगती-गीतां रे बारे म्हें भोत थोडा मिनखां नै ठा' हेला । सर, तुलसी, कबीर, मीरां, दादू, रैदास वगेरे संत कवियांने जिसा पद भर गीत बणाया हैं उणां तूं किणी दरजे न घटता, घणा फूटरा गीत जैन कवियां भी रच्या हैं । घरमावतारां री प्रसंसा म्हें उणां री लीलां रो घणो सरस वरणण इण गीतां में मिलहै। जिणेसर पारसनाथ, विमळनाथ, नेमीनाथ, रिखभनाथ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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