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________________ २७२ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध आहार निषिद्ध नहीं माना जा सकता। आचार्य श्री सोमदेवसूरि ने अपने यशस्तिलक में लिखा है-वे सभी लौकिक क्रियाएँ जैनों के लिए मान्य हैं जिनमें सम्यक्त्व की हानि नहीं होती हो और व्रतों में कोई दोष नहीं लगता हो । * " व्याख्यान पूर्ण होते ही जब श्रोतागण चले गए तब वार्तालाप में वजीर ने अर्ज किया कि-'गरीबपरवर ! अच्छे वस्त्राभूषण पहिनी सुन्दरियां के समक्ष बिराजने और उनके सम्पर्क में आने पर क्या आपके मन में विकार नहीं होता ?" गुरुदेव ने उत्तर दिया, " वजीर साहब ! चंचल मन का दमन इसमें अनिवार्य है। फिर भी सूअर के मांस से बनी स्वादिष्ट रसोई किसी सच्चे मुसलमान के सामने लाने पर जिस प्रकार उसका रस--लोलुप मन भी उसे स्वीकृत करने में पुरस्सर नहीं हो सकता; ठीक वही स्थिति सुन्दरी के प्रति साधु की हुआ करती है। रमणी मात्र के प्रति मुनि के मनोभाव पुत्री या बहन के रूप में ही होते हैं।" इन स्वल्प शब्दोंने सब को संतुष्ट कर दिया। - श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज कसौटी का जीवन जी रहे थे । वे खरे थे । अपने निकट के हर शिष्य को खरा देखना उन्हें पसन्द था । एक बार किसी सामान्य प्रमाद या स्खलना के कारण उन्होंने अपने घनिष्ट आत्मीय श्री धनचन्द्र सूरिजी तक को अपने समुदाय से अलग कर दिया था। परन्तु आलोयणा लेने के पश्चात् ही उन्हें अपने समुदाय में पुनः अपना लिया गया । नियम और मर्यादाओं का चुस्त पालन श्री राजेद्र सूरिजी में जैसा पाया गया वैसा अन्यत्र मिलना दुलभ है !! मात्र शिष्यगण बटोर कर एक खासा हजूम या जमघट निर्माण करने की उनकी कभी लालसा न रही। इनके वरद हस्त से कुल ढाइसौ जन दीक्षित हुए थे। उनमें से कुछेक ही शुद्धाचरण का परिपालन करते हुए अपना दीक्षित जीवन धन्य कर सके । सामाजिक कुसंप और जाति-विच्छेद प्रथा एवं तज्जन्य भयंकर दुष्परिणामों को आप समाज के लिए घातक समझते थे। अपने विहार के अन्तर्गत अनेक गांवों स आपने कुसंप को संदंतर निर्मूल कर दिया था । वर्षों के जाति-विच्छेद कलंक से मालवा के चिरोला गांव को उबारने का श्रेय आप ही को है। ___आध्यात्मिक जीवन की उत्क्रान्ति आंतर चारित्र्य के विकासक्रम पर अवलंबित है। उसे जैन परम्परा में गुणस्थानक कहा जाता है । ध्यान-व्रत, नियम-तप आदि जो - जो उपाय आन्तर चारित्र के पोषक हैं वे ही बाह्य चारित्र्य रूप से साधक के लिए उपादेय माने गये हैं। श्री राजेंद्र सूरिजी ने अपने आध्यात्मिक स्तर को प्रशस्त बनाने के हेतु विशुद्ध स्वल्प आहार और तपश्चरण को बहुत महत्त्व दिया । संयमनिर्वाह के लिए यह परमावश्यक भी है । जीवन के अंतिम दिनों में श्री धनचन्द्र सूरिजी के साथ मारवाड़ के एकांत निर्जन-जंगलों में आपने कई दिन तक तप - ध्यान आदि किए थे। * यत्र सम्यक्त्व हानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् । सर्वमेव हि जैनानां, प्रमाण लौकिको विधि:॥ - यशस्तिलक--- आचार्य सोमदेव । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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