SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय खंड पुनरुद्धारक श्रीमद् रोजन्द्रसूरि २७१ जाता है कि विगत दो तीष शताब्दियों में ऐसा बृहद् प्रतिष्ठामहोत्सव हुवा सुना नहीं गया। इतर क्षेत्रों में भी गुरुदेवके कर-कमलों से अनेकों प्रतिष्ठा-अंजनशलाकाएं हुई और वे निर्विघ्न हुई । मरुघरोद्वारक या माखाड़ - सुधारकके विरुदसे भले आज किसी को नवाजा जा रहा हो; पर यदि वस्तुतः माखाड़ में गत अंधकार युगसे जैन शासन को प्रकाश की ओर अग्रसर करनेका किसीने सर्वप्रथम प्रयत्न किया है तो उसका सारा श्रेय श्री राजेंद्रसूरिजी महाराज को है आपने ढकोसलों और अन्ध विश्वासों के विरुद्ध ऐसी आवाज उठाई कि सुप्त आत्माओं को उससे बड़ा बल मिला । नवसृजनका पुनः एक नया अध्याय खुला और अज्ञान से दनी आत्माओंको जिनके दम युगोंसे धुटते जा रहे थे तत्त्व-चिंतन सुरभित प्राणवायु मिला । आपके अथक परिश्रमसे अनेक लोगोंने शुद्ध समकित भावसे त्रिस्तुतिक परम्परा का शरण लिया। सुधारआन्दोलन में आपको यति श्री बालचन्दजी, ढूंढक नंदरामजी उपाध्याय, संवेगी झवेर सागरजी, श्री विजयानन्द सूरिजी आदि कई समकालीन व्यक्तियों से चर्चायें करनी पड़ी थीं। ___ गुरुदेव का स्वभाव अत्यन्त सरल था । शास्त्रश्रवण-पठन और शंका-समाधान के लिए जिज्ञासु इन्हें अहर्निश घेरे रहते थे । इनके मधुर स्वभावसे आकर्षित हो छोटेबड़े, साक्षर-अनपढ इनसे धर्म-श्रवण करने निर्भय आया करते थे । व्याख्यान देने की इनकी शैली अत्यन्त सादी और सुग्राह्य थी । कठिन और विष्ट विषयों को भी वे सुगमतापूर्वक श्रोताओं को समझा दिया करते थे। --- अप्रमत्त भाव से, बिना उद्विग्न हुए चे हर जिज्ञासु की शंकाओं का समाधान अवश्य कर दिया करते थे और ऐसी धर्म चर्चाओं के करने में कभी - कभी वे रातमें घंटों जागते रहते थे। गुरुदेव जैनदर्शक के प्रतिभाशाली प्रगल्भ प्रवक्ता थे । जैन आचार - विचार के आप एक जागरुक एवं दक्ष पुरस्कर्ता हुए । स्याद्वाद की नींव पर अधिष्ठित जैन आचार अंधविश्वास की लीक में उलझकर कहीं संकीर्ण न बन जाय या कर्मकांड में ही परिसीमित न हो जाय इस विषय में एक सचेत प्रारी की भांति वे निरंत सावधानी पूर्वक प्रयत्नशील रहे । एक बार जावरा में वहां के तत्कालीन नवाब मुहम्मद इस्माइल और वजीर आदि इनके व्याख्यान में पधारे । समभाव पर व्याख्यान हो रहा था । गुरुदेव की वक्तृत्वशैली की श्रेष्ठतम विशेषताओं से वे अत्यन्त मुग्ध हुए । उन्होंने गुरुदेव से साश्चर्य निवेदन किया, "जब आप समभाष को इस कदर मानते हैं तो फिर हमारे यहां से आप आहार ले सकते हैं ?" गुरुदेव नवाब की चतुरता को जान गए । उन्होंने बतलाया, “मनुष्य तो क्या ? जीवमात्र में आत्मभाव समान रूप ले व्याप्त है । इस दृष्टि से सभी जीवधारी समान हैं । आहारव्यवहार मात्र लोकाचार है । ये लौकिक क्रियाएँ हैं । आहार की अपेक्षा विचार से आत्मभाव का अधिक संबन्ध है। यदि अंत्यज शुद्धक्रिया - कलाप में रहे तो वह उस सवर्ण से श्रेष्ठ है जो आचारविचार से पतित है । उस अंत्यज क घर का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy