SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय खंड पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूति होता है । फिर किन्हीं निधियों के लिए कहीं भटकने की उसे जरूरत नहीं रहती । प्रस्फुटित आत्म-तेज की चकाचौंध से चकित होकर तब ठेठ स्वर्ग लोक से देवराज भी उस परम मानव की शरण! आते हैं ! ऐसा मूल्यवान है मानव - भव और उसकी जीवन-सिद्धि ।" गुरुदेव ने खूब जोर देकर इस बात को लोकमानस में उतारने का प्रयास किया कि कोई जरूरत नहीं कि पार्थिव सुख-संपदा जो वास्तव में मिथ्या है और बिना योग उसकी प्राप्ति संभव नहीं; उसके लिए किसी के संमुख हाथ पसारते फिरो। किसी देवदेवी की मनौती मानो !! अपने स्वत्त्व का मूल्य समझो । मात्र लालसाओं की इप्सा करने से परिणाम दूर भागते हैं । आकांक्षाओं की मृगमरीचिका में छलने से स्वयंको बचाओ और कार्यरत रहो तो सफलता चरण चूमेगी। कहा भी है 'पर की आशा सदा निराशा ।" तप-साधनारत भगवान् महावीरने इन्द्रदेव के सेवा में रहने के पुनः पुनः आग्रह को भी अस्वीकार किया था । महात्मा बुद्ध को भी जगत की वक्र गति से प्राण पाने के लिए देवों से सहायता लेना निस्सार प्रतीत हुआ था। - कैसे परित्राण हम पावे, किन देवों को रोवे गावे ? पहले अपना कुशल मनावे, वे सारे सुर-शक्रः ॥ -घूम रहा है कैसा चक्र ! भगवान महावीर के छन्द में पन्यास विवेक विजयजी ने गाया है ....... जेह देवलां आपणी आशा राखे, तेह पिंडने मन्नसु लेय चाखे । दीन हीन नी भीड ते केम भाँजे ? ......... त्रिस्तुतिक (तीन थुई ) की मान्यता भी कुछ इसी आशय पर आश्रित है। स्वमत व्यामोही या दृष्टिरागी भले कहें कि अनेक पंथों द्वारा विभक्त जैन सम्प्रदाय में त्रिस्तुतिक वाद को जन्म देकर श्री राजेन्द्र सूरिजी ने एक और नवीन मत की वृद्धि की है। पर वस्तुतः यह बात नहीं। किसी तत्त्वचिंतक के लोकहितकारी यथार्थ विचारों की अवगणना या उपेक्षा न हो। प्रत्युत उनके शानविचारों का संतुलन स्वीकार हो इसी में समाज कल्याण का बीज निहित है । जो लोग चतुर्थ स्तुति एवं असमकिती देवों के आराधन में परम्परा से प्रभावित थे वे आरम्भ में त्रिस्तुतिक व्यवस्था से अधिक आकृष्ट न हो पाए; क्यों कि गतानुगतिकता के प्रवाह में न वह कर युक्ति और प्रमाणों से असिख चतुर्थ स्तुति को मानने से इंकार कर देना कोई साधरण बात नहीं थी। फिर भी गुरुदेव की प्रतिपादन प्रणाली और उनके इस ओर अनवरत अध्ययनमूलक प्रयासों से उनके जीवन काल में ही लगभग डेढ़ - दो लाख लोगों ने इस परम्परा का शरण लेकर सत्पथ का अनुसरण किया । कदाचित ही कोई विचारशील व्यक्ति इसकी सुदृढ एवं अस्खलित परम्परा तथा सम्यक्त्व हित इसकी सर्वोपरि उपादेयता से दो मत होगा! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy