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________________ विषय खंड पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि २६७ का त्याग करने पर ही द्रव्य भाव उत्पन्न होता है। तभी अणगार - अवस्था प्राप्त हो सकती है । फिर हम तो आचार्य हैं ! श्रीपूज्य हैं !! युग की मांग है कि हममें से शिथिलाचार दूर हो और हम अपने प्रकृत संविज्ञ-मार्ग की पुनः प्रतिष्ठा करें, ताकि उसका अनुसरण करते हुए सभी लोक-कल्याण और स्वात्म · कल्याण के मार्ग पर सहज अग्रसर हो सकें । सिष्यों से इन शर्तों का पालन दृढ़ता पूर्वक करवाना व स्वयं करना अनिवार्य है। बिना इन शर्तों के स्वीकृत किए आपसे मिलकर मैं क्या करूँगा? ये नव कलमें शिथिलाचारी यतिसमाज को संविज्ञ-साधु मार्ग में सुस्थिर करने का घोषणा-पत्र थीं । इनको मान्य कर के इस विषम युग में भी अनेक मुनिगण कल्याण - पथ पर अग्रसर हो चले । तत्कालीन मुनिधर्म के आचार-शैथिल्य का से भली भांति पता चल सकता है। वैसेतो सुख-स्मृद्धि में राचने वाले श्री पूज्य धरणेन्द्र सूरि को ये नव कलमें स्वीकृत करने में प्रथम झिशक हुई। परंतु जावरा में श्रीपूज्यपन के सारे परिग्रहों का त्याग कर श्री राजेन्द्रसूरि क्रियोद्धार करनेवाले हैं ऐसा सुन कर श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि को भी ये नव कलमें स्वीकृत करनी पडी । बाद में श्री राजेन्द्रसरिजी ने स्वयमेव शास्त्रानुसार क्रियोद्धार किया । श्री राजेन्द्रसूरिजी एक परम गीतार्थ मुनि थे । अपने चारित्र्य को सबल बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी । वे कहा करते थे कि जबतक अपने दोषों और शिथिलताओं पर हम काबू नहीं करते, हमारी वाणी- व्याख्यानों का श्रोताओं पर प्रभाव होगायह आशा करना ही व्यर्थ है । युग के शोचनीय प्रवाह में उन्हें जैन-शासन और मनि के संवेग कीही चिंता सतत रहा करती थी। उन्हें किसी गच्छ या साधु से कोई विद्वेष थोडहीथा? मात्र लगन थी मुनिधर्म के पुनरुध्दार की। युगों की कालिखको साफ कर जैनत्त्व को उज्वल बनाने की महत्त्वाकांक्षा ने उन्हें प्रथम आत्मोद्धार करने को प्रेरित किया। अंतर्मुख होकर उन्होंने अपनी एक - एक खामी का शोधन-परिशोधन किया और ऐसा त्यागमय जीवन बिताया कि लोग दिग्मूढ हो गए। विरोधी जो भर्तस्ना करते अघाते न थे उनके भी सिर झुकने लगे। वे आदर्श साधु का एक जीवन्त नमूना बन गए । ठीक ही है - चारित्र्य तभी वन्दनीय है जब वह शान - दर्शन से युक्त हो । * आत्मा की अनंत शक्ति के प्रति उनमें बड़ा बिश्वास था। आत्मा का शुद्ध सम्यक्त्व भावों द्वारा विकास कर कर्म - बन्धनों से किनारा किया जा सकता है। १ दशवकालिक सूत्र-छः जीवनिका अध्ययन २ इन नव समाचारियों पर विशेष वर्णन के लिये श्री राजेन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ के जीवन खंड के " दिशापरिवर्तन" लेख को देखो -सम्पादक * दर्शन पाहुड की प्रथम माथा-दंसण मूलो धम्मो, उबटो जिणवरेहि सिस्साणं । तं सो ऊण सकण्णे दसण हिणो ण वंदिव्बो । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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