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________________ पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि लेखक-शाह इन्द्रमल भगवानजी, बागरा (मारवाड़-राज०) उन्नीसवीं सदी का आरंभिक काल भारतीय जन-जीवन का तमः काल था । राष्ट्रीय एवं सामाजिक उत्थान के प्रमुख अंग-शिक्षा, संस्कृति, धार्मिक स्वातंत्र्य, अर्थव्यवस्था, निरापद आवागमन, जनसुरक्षा, न्याय आदि सभी क्षेत्रों में अंधेर ही अंधेर व्याप्त था । लोक-कल्याण का शाश्वत पंथ-धर्म भी इन तात्कालिक विकृतियों से बच न सका । आसक्त व विषयानुरक्त देवप्रतीक युक्त अन्य पंथ-धर्मों की बात तो दूर प्रशस्त राजमार्ग सा जिनधर्म भी कर्म - काण्ड व मंत्र-तंत्रों के भ्रामक आडंबर से अपने प्रकृतस्वरूप को खो बैठा । पीड़ित मानवता व दलित प्राणियों के आश्वासन का चिरंतन हिमायती जैन मार्ग अपना आदर्श भूल गया। वह सम्यक्त्व मणि-मुक्ताओं से विमुख हो कर कंकड़ ठीकरों की ओर बढ़ चला । धर्म-तरी अधर्म-तूफानों से डोलने लगी । देशव्यापी इन विकारों का जैनसमाज पर भी अत्यन्त घातक प्रभाव हुआ । समाज एवं धर्म के जाग्रत प्रहरी मुनिगण जिनका अद्यावधि इतिहास सर्वथा लोककल्याण और आंतरचारित्र्य के विकास से दैदिप्यमान रहा है वे अब तन्द्राग्रस्त और वह धूमिल प्रायः हो चुका था । यों तो चौथी शताब्दी के आरंभ में चैत्यवास के कारण मुनियों में शिथिलाचार बढ़ने लगा था जो कालांतर में इतना बढ़ गया था कि सुविहिताचारी मुनियों को उनसे संबंध विच्छेद करना पड़ा था । सुविहिताचारियों से विलग हो जाने के कारण अंततोगत्वा चैत्यवासियों में शिथिलाचार प्रबलतर रूप धारण कर गया । यह तो नहीं कहा जा सकता कि उस समय शुद्धाचारी और सम्यक्त्वशील मुनियों का सर्वथा अभाव ही हो गया होगा । अथवा सारा जनसमुदाय उन्हीं का अनुयायी बन गया होगा । शुद्धाचरण का परिपालन करने वाले भी रहे होंगे । फिर भी वे विरल ही होंगे । जैसा पं. आशाधरजी ने कहा है - ‘खद्योतवत् सूपदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित् ।' मारवाड, मालवा में चैत्यवास के कुफल के प्रमाण ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। श्री हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ संबोधप्रकरण में चैत्यवास के उल्लेख पाये जाते हैं । श्री जिनवल्लभसूरिजीकृत संघपट्टक की भूमिका में बताया है कि मारवाड़ में भी चैत्यवासियों का बहुत प्राबल्य था। उनके विरुद्ध सर्वाधिक प्रयत्न श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ सूरि ने किया है। अपने संघपट्टक ग्रन्थ में श्री जिनवल्लभसूरि ने चैत्यवासियों के शिथिलाचार और उनकी सूत्रविरुद्ध प्रवृत्तियों का अच्छा निर्देशन किया है। श्री जिनदत्तसूरि और जिनपतिसूरिजी आदि अनेक युगपुंगवों ने शिथिलाचार को दूर करने के हेतु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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