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________________ विषय खंड जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश % 3D चलता है। इस गच्छ की तपा शाखा का उल्लेख नाहर लेखांक १२७४ में है। कृष्णर्षि के सम्बन्ध में उपकेशगच्छ चरित्र में भी ज्ञातव्य पाया जाता है। कोरंटक गच्छ-कोरंटवदन मारवाड़ के ऐरणपुरा स्टेशन से पश्चिम १३ मील पर अवस्थित 'कोरटा' ग्राम से यह गच्छ प्रसिद्धि में आया है। 'उपकेश गच्छ चरित्र' के अनुसार यह स्थान २॥ हजार वर्ष प्राचीन है । इसके सम्बन्ध में श्री यतींद्रसूरिजी का 'कोरटातीर्थ का इतिहास' देखना चाहिये । इस गच्छ को उपकेश गच्छ की शाखा ही समझिये । इसमें कनकप्रभ, सोमप्रभादि पहले नामवले फिर कक्कसूरि व सावदेवसूरि व नन्नसूरि ये तीन नामवाले ही आचार्य (पुनः२) हुए। इस गच्छ के आचार्यों की नामावलि मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने 'पार्श्वनाथ परम्परा' के इतिहास के प्र. १४९२ में दी है एवं प्रतिमा-लेखों को भी संग्रह करके परिशिष्ट में प्रकाशित किये हैं जो कि सं. १२१२ से १६१२ तक के हैं। शानसुन्दरजी के निर्देशानुसार इस गच्छ के श्रीपूज्य सं. १९०० तक विद्यमान थे। सं. १५२५ के एक लेख में कोरंटक तपा नाम भी मिलता है। दे. प्रा. ले. सं. ले. ३८७ । खंडिलगच्छ-खंडिल स्थान या आचार्य के नाम से प्रसिद्ध में आया है। १२ वीं शती में वीरगणि व सं. १४१२ में पार्श्वनाथ चरित्र के रचयिता कालिकाचार्य संतानीय इसी गच्छ में हुए । खंडेरक-संडेरक को ही कहीं खंडेरक नाम दिया है। दे. जै. सा. सं. इ. पृ- ३९० टिप्पणी। खरतर-श्वे. समस्त गच्छों में तपागच्छ के बाद अधिक प्रभावशाली यही गच्छ रहा है। सं. १०८० के लगभग पाटण में दुर्लभराजा की सभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में हराकर जिनेश्वरसूरि ने सुविहित - खरतर विरूद्ध प्राप्त किया । इस गच्छ का साहित्य एवं प्रतिमा-लेख प्रचुर हैं । 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' इस गच्छ के ११ वीं से १४ वीं के अंत तक के इतिहास के लिये महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके पश्चात् विज्ञप्ति महालेख, विज्ञप्ति त्रिवेणी व अनेक पट्टावलियां, ऐ. रास, गीत आदि विशाल ऐ० सामग्री प्राप्त होती है । समुदाय बढने के साथ इसकी शाखायें भी बढ़ती गई। उनमें प्रमुख गच्छभेद इस प्रकार हैं १) महुकरा (मधुकरा)-जिनवल्लभसूरि (सं. ११६७ ) के समय, इस शाखा के अलग होने का उल्लेख पट्टावलियों में मिलता है। इस गच्छ के कुछ प्रतिमा-लेख .. प्रकाशित हैं। २) रुद्रपल्लीय-सं. १२०४ में जिनेश्वरसूरि से रुद्रपल्लीय स्थान के नाम से . यह गच्छ भेद हुआ। इसमें बहुत से विद्वान् ग्रन्थकार हुए। १७ वीं सदी तक यह .. शाखा विद्यमान थी। ३) लघु खरतर-सं. १३३१ में सुप्रसिद्ध प्रभावक जिनप्रभसूरि के गुरु जिनसिंह . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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