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________________ . श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध देखनी चाहिये । इस मत के रचित साहित्य के सम्बन्ध में मेरा एक लेख जैन सत्य प्रकाश में प्रकाशित हो चुका है कदरसा गच्छ - पार्श्वनाथ परम्परा के इतिहास में पृ. १५०४-५ में इसका उल्लेख है । पर पुण्यवर्धनसूरि का उल्लेख होने से उसी लेख के अनुसार इसका नाम भिन्न रहा सभव है। कई गच्छों के नाम अशुद्ध खुदे व पढे गये है । कमलकलशागच्छ- वास्तव में यह तपागच्छ की ही एक शाखा है । कमलकलश नामक आचार्य से १६ वीं शती से यह शाखा अलग हुई । इसके श्री पूज्यजी विजयजिनेन्द्रसूरि धनारी (सीरोही राज्य ) में विद्यमान है। काम्पक गच्छ - निर्वतक कुलीन इस गच्छ के महेश्वरसूरि का सं. ११०० भा. ब. २ सो. का एक प्रशस्ति-लेख 'प्राचीन लेख संग्रह' ले. ५०१ में प्रकाशित है। ___कुतवपुरा गच्छ-पाटण के निकटवर्ती कुतवपुर के नाम से आ. इन्द्रनंदि की परम्परा का यह नाम पड़ा । इस गच्छ के हर्षविजय से निगममत निकला । पट्टावली समुच्चय भा २ पृ. २४३. वास्तव में यह तपागच्छ की ही शाखा है। काशहद-सिरोही राज्य के कासिंद्रा या काइंद्रा स्थान के नाम से इसका नामकरण हुआ है, जो किवरली स्टेशन से ४ माइल व आबूरोड से ईशान कोण में ८ मील पर ह । इस गच्छ के १३ वीं शताब्दी के कई लेख मिलते हैं व इस गच्छ के नरचंद्रसूरि ने ज्योतिष के कई उपयोगी ग्रन्थों का निर्माण किया है। कुर्चपुरीय-संभवतः नागौर के निकटवर्ती कूचेरा (कुर्चपुर) से इस गच्छ, की उत्पत्ति हुई है । खरतर गच्छीय जिन वल्लभसूरिजी पहले इसी गच्छ के थे । फिर अभयदेवसूरि से अध्ययन कर उपसंपदा ग्रहण की। कूबडगच्छ-प्राचीन लेख संग्रह ले. ११० में सं. १४७१ का एक प्रतिमा लेख इस गच्छ के भाव शेखरसूरि का प्रतिष्ठित छया है। संभव है हूँबड़ को कूबड अशुद्ध रूप में पढ़ने से यह नाम प्रकाश में आया हो। रुष्णर्षिगच्छ-आर्य सुहस्तिसूरि के शिष्य श्रीगुप्त के 'चारण लब्धिसंपन्न होने से प्रसिद्ध चारण गण' की चौथी शाखा ग्रज नागरी के विटप नामक द्वितीय कुल. में ९ वीं शती में प्रभावक आचार्य कृष्ण ऋषि हुए। उन्हीं की सन्तान की प्रसिद्धि कृष्णर्षि गच्छ के नाम से हुई । इस गच्छ के विद्वानों के रचित कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। जिनके सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये पं. लालचंद्र भ. गांधी का कण्ह (कृष्ण) मुनि शीर्षक लेख देखना चाहिये जो जैन सत्यप्रकाश वर्ष ७ के दीपोत्सवी विशेषांक में प्रकाशित है । १६ वीं शती तक इसकी परम्परा के विद्यमानता का पता ... १ देखें धर्मोपदेशमाला वृत्ति एवं गणधरवाद की भूमिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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