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________________ विषय खंड जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश १३९ - सूत्र के प्रणेता आ. उमास्वाति भी इसी वाचक वंश में हुए हैं। [१५] नंदि स्थिरावली की १८ वीं गाथा में आ. भूतदिन के 'नाइलकुल' का भी उल्लेख है। [१६] परम्परा व प्रभावकचरित्रादि के अनुसार वज्रलेनसूरि के शिष्यं चन्द्रसरि से 'चन्द्रकुल' प्रसिद्ध हुआ । विद्यमान सभी गच्छ 'चंद्रकुलीन' माने जाते हैं । इसी प्रकार नागेन्द्र, निवृत्ति व विद्याधर' कुल का प्रादुर्भाव भी उन नाम वाले आचार्यों से हुआ। वे सभी ब्रजसेनसूरि के शिष्य थे। . छट्ठी शताब्दी के प्रारम्भ तक उपर्युक्त गण, शाखा व कुलों का पता चलता है, पर ये सब, समुदाय या गुरुपरम्परा विशेष से संबन्धित हैं । इनमें क्रिया, अनुष्ठानों [विधि-विद्यानों] में कोई भेद था, इसका उल्लेख नहीं पाया जाता। पर इसके पीछे जो गच्छों का भेद हुआ उन सब में कोई न कोई सैद्धान्तिक व विधि-विधान संबंधी मतभेद अबश्य है। मेरे नम्र मतानुसार चैत्यवास का प्रारंभ पहले से होने पर भी उनका प्रभाव ६-७ वीं शती में ही अधिक रूप से बढा । इस समय आगमों की आम्नायों का तथाविध प्रचार व पठनपाठन न रहने से हास होने लगा। साधारण विचार भेटों को महत्व देने से छिन्नभिन्नता आने लगी । अपने अपने चैत्यों की सार-संभालआमदनी बढाने व अनुयायियों को आकर्षित कर अपने सम्प्रदाय में रोके रहनेके स्वार्थ व अहम्मभाव का घिस्तार इन गच्छों के प्रादुर्भाव में सहायक बना। उपर्युक्त गण, शाखा व कुल की नामावली पर दृष्टिपात करते हुए आर्य सुहस्ति तक के आचार्यों की शिष्यसंतति को प्रसिद्ध आचार्य के नाम से सम्बोधित किया जाता, उसे 'कुल' एवं जिन-जिन स्थानों में जिस श्रमण समुदाय का विहार अधिकतर होता उन स्थानों के नाम से 'शाखायें' प्रसिद्धि में आई है। प्रधान आचार्य का विशाल समुदाय हो जाने पर उनके नाम से या अन्य कार्य विशेष के कारण प्रचलित नामों को 'गण' की संज्ञा दी गई । जिस प्रकार गोदास से गोदास 'गण' हुआ वह आचार्य के नाम से व कोटिक गण का नामकरण आचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध के करोड़ सूरिमंत्र के जप के कारण हुआ, कहा जाता है। पर पीछ प्रभावकचरित्र पर्यालोचक में मुनि कल्याणविजयजी ने लिखा है कि कल्पसूत्र स्थिरावली में वज्रसेन के शिष्यों व उनके कुलों के नाम भिन्न बतलाये हैं; अत: विचारणीय है। ११ वीं शती तक तो नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति व विद्याधर ये कुलसंज्ञा से ही प्रसिद्ध थे। पर पीछे से इन्होंने गच्छोंका नाम धारण कर लिया । आचारांग के टीकाकार शीलांकाचार्य व उपमितिभव प्रपंचा के कर्ता सिद्धर्षि निवृत्तिकलीन व आ० हरिभद्रसूरि विद्याधर कुल के थे । नागेंद्र एवं चन्द्रगच्छ स्वतंत्र रूप में पीछे तक प्रसिद्ध रहा है। जैन मत गच्छ प्रबंधादि में प्रभावकचरित्रानुसार आ० पादलिप्तसूरि को विद्याधर गच्छ का बतलाया है। पर मनि कल्याणविजयजी की मान्यतानुसार वे विद्याधर गोपाल से निकली दुई विद्याधरी शाखा के होने संभ है, विद्याधर कुल के नहीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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