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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध के कारण ऐसे लघु मंत्रों का स्मरण करते है। उन्हें तो प्रमाद स्थानों को छोड़ कर मूलमंत्र का ही स्मरण करना चाहिये । ८० प्रश्न- श्री नमस्कार मन्त्र का जाप किस प्रकार से करना चाहिये ? | उत्तर - कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने योग शास्त्र में श्री नमस्कार मन्त्र के जाप का विधान विस्तार पूर्वक वतलाया है । अतः इस विषय के लिए योगशास्त्र के आठवें प्रकाश का ही अवलोकन करना चाहिये । श्रीभद् पादलिप्त सूरीजी ने श्रीनिर्वाणकलिका में जाप के भाष्य उपांशु और मानस, ये तीन प्रकार दिखलाये हैं । जो इस प्रकार हैं- नमस्कार स्मरण करने वालों के द्वारा अन्य लोग भले प्रकार से सुन सके वैसे स्पष्ट उच्चारण पूर्वक जो जाप होता है उनको ' भाष्य' ' जाप कहते हैं । भाष्य जाप की सिद्धी होने पर स्मरण करने वाला कण्ठ गता वाणी से दूसरे लोग सुन तो न सके परन्तु उनको यह ज्ञात हो जाय कि जाप कर्ता जाप कर रहा है । उस जाप को 'उपांशु' ' जाप कहते हैं । उपांशु जाप की सिद्धी हो जाने पर जाप करने वाला स्वयं ही अनुभव करता परन्तु दूसरों को ज्ञात नहीं हो सकता उस जाप को 'मानस' जाप कहते हैं । , इस प्रकार भाष्य, उपांशु और मानस जाप करने में जाप करने वालों में कोई सम्पूर्ण नवकार का और कोई अ. सि. आ. सा. उ. य नमः तो कोई नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुम्यः का तो कोई ॐ अर्हन्नमः इस अत्यन्त संक्षिप्त परमेष्ठि मन्त्र का स्मरण करते हैं । ॐ अर्हनमः मंत्र में पंच परमेष्ठि का समावेश इस प्रकार होता है अरिहंता असरीरा आयरिया उवज्झाया तहा मुणिणो । पढ़मक्खर निष्फण्णो ॐकारो पंच परमिट्ठी ॥ अरिहंत का अ, अशरीरि सिद्ध का अ, आचार्य का आ, उपाध्याय का उ, और मुनि का म इन सब को परस्पर मिलाने से ॐकार निष्पन्न होता है, जो पंच परमेष्ठी का वाचक है - अ + अ = आ, आ + आ = आ, आ + उ = औ, औ + म् = ओम् (ॐ) इस प्रकार ॐ पंच परमेष्ठि का वाचक है ही और अर्हम् की भी महिमा अपरम्पार है । श्री हेमचन्द्र सूरिजी म. ने 'श्री सिद्धहेमशद्वानुशासन' की बृहद् वृति में लिखा है कि'अर्हमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्टिनो वाचकं सिद्धचकस्यादि बीजं सकलागमो 66 १ यस्तु परैः श्रयते भाष्य : २ उपांशुस्तु परैरश्रूयमाणोऽन्त संजल्परूप : । ३ Jain Educationa International तत्र मानसो मनो मात्र वृति निवृतः स्वयंवेद्य : ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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