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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध हम सिद्ध भगवान को जानते है। अतः सर्व प्रथम नमस्कार अरिहन्त भगवान को किया जाता है सो योग्य ही है। दूसरा नमस्कार जो आठों कर्मों का सर्वथा क्षय करके लोकान पर विराजमान हो गए हैं, उन श्री सिद्ध भगवन्तो को किया जाता है। जिस का तात्पर्य है किअरिहन्तो को नमस्कार करने के पश्चाद वे (अरिहंत) चार अधनधानि कर्मों का क्षय करके जिस सिद्धावस्था को प्राप्त होने वाले हैं। उसे दूसरा नमस्कार किया जाता है। यद्यपि कर्मक्षय की अपेक्षा से श्री सिद्ध भगवान अरिहन्तों की अपेक्षा अधिक महत्तावन्त हैं तथापि व्यावहारिक दृष्टि से सिद्धों की अपेक्षा अरिहन्त अधिक गिने जाते हैं, क्यों कि परोक्ष ऐसे श्री सिद्ध भगवान का शान अरिहंत ही करवाते हैं । अतः व्यावहारिक दृष्टि को ध्यान में रख कर हो प्रथम नमस्कार अरिहन्त को ओर दूसरा नमस्कार सिद्धों को किया जाता है। ___ तीसरा नमस्कार छत्तीस गुण के धारक प्रकृती सौम्य भाव वैद्य भावाचार्य भगवान आचार्य महाराज को किया गया है। जिसका रहस्य है कि - श्री अरिहन्तो के द्वारा प्रवर्तित धर्म मार्ग का-तत्वमार्ग-का जीवनोत्कर्ष मार्ग-का एवं आचार मार्ग का यथार्थ प्रकार से जनता में प्रकाशन कर स्वयं आत्मसाधना में लगे रहते हैं और दूसरों को बोध देकर आत्मसाधना में लगाते हैं। तीर्थ का रक्षण करते हैं, करवाते हैं। श्री संघ की यथा प्रकार से उन्नति के मार्ग प्रदर्शित करते है साधना से विचलित साधको को साधना की उपादेयता समझा कर संयम मार्ग मे प्रवृत करते है। ऐसे महदुपकारी शासन के आधार स्तंभ मुनिजन मानससरहंस आचार्य महाराज को इसलिये तीसरा नमस्कार किया गया है। चौथा नमस्कार श्री उपाध्यायजी महाराज को किया गया है। इस का मतलब कि-तीर्थ के निर्माता श्री अरिहंत भगवान से उच्चारित तथा गणधर भगवन्तों के द्वारा सूत्र से ग्रन्थित श्रुत का योगोद्वहन पूर्वक और परमकारुणिक श्री पूर्वीचार्यों सन्दब्ध शास्त्रों का स्वयं अध्ययन कर के संघस्थ छोटे बड़े मुनियों को जो जिसके योग्य है उसे उसी का अभ्यास करवा कर स्वाध्यायाध्यान का प्रशस्त मार्ग देनेवाले तथा चारित्रपालन की विधियों-प्रकारों के दर्शक श्री उपाध्यायजी महाराज होते हैं । आगमों का रहस्य जिन्होंने पाया है, ऐसे श्री उपाध्यायजी महाराज को चौथा नमस्कार किया गया है । पांचवा नमस्कार साधु महाराज को किया गया है । जिसका हेतु है किआचार्य और उपाध्याय महाराज से सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवान श्री अरिहंत देव प्ररूपित धर्म मार्ग का श्रवण करके उसे आत्महितकर जान करके उसे अंगीकार करके चारित्र धर्म की प्रतिपालना में दत्तचित्त मुनिराजों को नमस्कार करके हम (नमस्कारकर्ता) भी समता को प्राप्त कर, ममता को त्याग कर कर्मों के ताप से आत्माको शान्त कर सके इसीलिये पांचवें पद से साधु मुनिराजों को नमस्कार किया गया है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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