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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध उत्तर :- सिद्ध भगवन्तों से पहले अरिहन्त भगवान को नमस्कार करने का मतलब यह है कि - श्री अरिहंत भगवान का उपकार सिद्ध भगवान की अपेक्षा अधिक है । श्री अरिहंत भगवान ही हम को सिद्ध भगवान् की पहचान करवाते हैं । सिद्ध भगवान और अरिहंत भगवान दोनों ने आत्म विकास तो कर लिया है, परन्तु सिद्ध भगवान आठ कर्मों का सर्वथा क्षय कर के मोक्ष में ( लोकाग्र पर ) जा कर विराजमान हो गये है । और अरिहंत भगवान सशरीरी अवस्था में विचरण कर धर्मतीर्थ का का प्रवर्तन करते हैं, जिसके द्वारा कर्मों से सन्तप्त प्रागी वीतराग शासन को प्राप्त कर आत्मकल्याण साधते है । अतः सर्व प्रथम अरिहंतों को नमस्कार किया गया है । अरिहंतों को नमस्कार करने के पश्चात् सिद्धों को नमस्कार किया जाना इस रहस्य का द्योतक है कि पहले अरिहंतों को नमस्कार करके वे जिस अवस्था को शेष रहे अनघाति चार कर्मों (आयुनाम गोत्र और अन्तराय ) का क्षय करके प्राप्त होनेवाले हैं, उस सिद्धावस्था को नमस्कार किया जाता है । श्री अरिहंत भगवान संसारी जीवों के लिये धर्म सार्थवाह हैं याने जिस प्रकार सार्थवाह अपने साथ के लोगों को उनकी आजीवीकोपार्जन के लिये उन्हें समस्त प्रकार की सुविधायें जुटा देता है । उसी प्रकार संसार में निजआत्म साधना से जो च्युत हो गये है, उन्हें आत्मसाधना में लगा देते हैं । वे संसार से तिरते हैं और दूसरों को तिराते हैं । अतः उन्हें नाणं तारयाणं विशेषण दिया गया है । सिद्ध भगवान अशरीरी होने से तथा लोकाग्र पर जाकर विराजमान हो गये है, अतः वे हमको किसी प्रकार का उपदेश नहीं देते, अतः हम सिद्धभगवन्तों से पहले अरिहंत भगवान को नमस्कार करते हैं । इस भै सिद्ध भगवन्तों की किसी प्रकार से आशातना भी नहीं होती । प्रश्न :- श्री अरिहंत भगवान कैसे होते हैं ? | ६६ उत्तरः- श्री अरिहंत भगवान ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणी, वेदनीय और मोहनीय इन चार घनघाती कर्मों का नाश कर के केवलदर्शन - केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ बने हुवे । तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले, द्वादश गुणों से विराजित, चौंतीस अतीशयवंत । पैंतीस गुणयुक्त वाणी के प्रकाशक, भव्य जीवों को ज्ञानश्रध्दा रूप चक्षुके देनेवाले | प्रशस्त मार्ग दिखलाने वाले । स्वयं कर्मों को जीतने वाले और दूसरों को जिताने वाले श्री अरिहंत भगवान होते है । श्री महरिभद्रसूरीशकृत अष्टक प्रकरण की श्री अभयदेव सूरिकृत टीका के पृ. २ पर लिखा है कि रागोङ्गनासङ्गमनानुमेयो द्वेषोद्विषहारण हेतुगम्यः । मोहः कुवृत्तागम दोषसाध्यो नो यस्य देवः सतुसत्यामन् ॥ जिस देव को स्त्री संग से अनुमान करने योग्य राग नहीं है, जिस देव को शत्रु के नाश करने वाले शस्त्र के संग अनुमान करने योग्य द्वेष नहीं है, जिस देव को दुश्चरित दोष से अनुमान करने योग्य मोह नहीं है, वह ही सच्चा देव अर्हन् ( अरिहंत ) हैं । अर्थात् राग द्वेष और मोह से जो रहित है, वही देव बनने योग्य है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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