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________________ विषय खंड' निवृत्ति लेकर प्रवृत्ति की ओर - वर्तमान विचार इस प्रकार के विचारों के प्रति अंशमात्र टीका टीप्पण नहीं करते हुए सिर्फ इतना ही कहना है कि जैन लेखकों के तरफ से जो भी साहित्य प्रकाशन हुआ है वह युग की मांग के अनुसार ही होता आया है, और हो रहा है । क्यों कि आज अपनी पांचवीं, सातवीं और दशवीं, अठारहवीं शताब्दी के जैनग्रन्थों को देखते हैं तो अपने को गर्व होता है कि उस समय जैन ग्रन्थकार कितने पहूंचे हुए थे ? जिन्होंने अपने हाथों से इस प्रकार का सबजन उपयोगी साहित्य निर्माण किया जो साहित्य आज सभी के लिए उपकारक तारक बन गया है ! उसी प्रकार प्रत्येक शतादी में जैन साहित्यनिर्माताओंने अपने समय की प्रणाली एवं भाषा में साहित्यसर्जन किया जो प्रत्यक्ष है । जैन लेखक एवं विद्वानोंने समय २ पर युग की मांग के अनुसार जो साहित्य निर्माण किया जिस के ( समकक्ष) में अन्य मतावलम्बी साहित्य निर्माण नहीं कर सके । वह द्रव्यानयोग, गणितानयोग, कथानयोग, चरणकरणानयोग इस प्रकार : विभागों में विभक्त है । ऐसा कोई विषय शेष नहीं बचा जिस को जैन साहित्यसृष्टाओंने न समझाया हो । इसी लिये तो प्रो. जोहन्स हर्टल भी लिखते हैं कि “They (Jains) a'e de creators of very extensive popular literatrue" - जैन लोग बहुत विस्तृत लोगोपयोगी साहित्य के सृष्टा हैं ! इस प्रकार प्रचूरमात्रा में निकले हुए जैन साहित्य के प्रति इतर जनों को भी कितना मान है वह उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट हो जाता है । साहित्य निर्माण कर के अपने सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करने के लिये जन लेखकों ने भगीरथ प्रयास किये जिनके प्रमाण आज भी हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं ! आज भी जैन साहित्य सब प्रकार से सर्वोपयोगी और समृद्ध है, इसे कौन नहीं जानता ? व्यवहार, नीति, रीति एवं आध्यात्मिकता की ओर आगे बढ़ने के लिये वह मानवमात्र को मार्गदर्शन कराता है । बस, इस से स्पष्ट होता है कि जैन सिद्धान्तों को विविध दृष्टिकोणों से लोगों को समझाने का प्रयास करने के लिये समयानुकूल साहित्य प्रकाशन करवाना चाहिये और ऐसा करने पर ही जन जन तक सत्य सिधान्त की बातें पहुँच सकती है। कइएक व्यक्ति के दिमाग में ये विचार भी चक्कर काट रहे हैं कि पुराने को ही प्रकाश में लाया जाय, नया नहीं होना चाहिये !" कितना भ्रम है इन विचारवानों को भी तो ? पुराना यदि होता ही नही तो नया आता ही कहाँ से, ? जलाशय होगा ही नहीं तो जल आयगा ही कैसे ? पुराने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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