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________________ निवृत्ति लेकर प्रवृत्ति की ओर लेखक - श्री यतीन्द्रसूरीश्वर विनेय-मुनि जयन्तविजय "मधुकर" विश्व में आज मंडरा रहे हैं यातना के बादल ! विज्ञान दिनों दिन बढाये जा रहा है आगे कदम ! संत्रस्त और भयभीत हो रहा है मानव समाज ! वर्तमान की इस प्रकार की गतिविधि को देखकर कितने ही लोग आश्चर्यमज्ञ हो रहे हैं, तब कितने ही लोग गर्वान्वित हों कर प्रबल मानते हैं अपने भाग्य को, और समझ रहे हैं उत्थान हो रहा है अपना, अपने देश का, एवं समस्त जगत का ! इसी प्रश्न को लेकर यत्र तत्र सर्वत्र अनेक विचार धाराएँ प्रस्फुटित हों चुकी हैं वर्तमान जगत में ! धर्म और अधर्म ! भौतिक और आध्यात्मिक ! ज्ञान और विज्ञान ! वर्तमान के मानव को जितना धर्म प्रिय नहीं उतना प्रिय अधर्म ! आध्यात्मिकता से जितना पर उतना ही भौतिकता के भीतर ! सत्यज्ञान से जितना अनभिश उतना ही विज्ञान का परम भक्त !!! आश्चर्य की बात है कि वह दूर है अनभिज्ञ हैं और विहीन भी है तथापि धर्मसिद्धान्त एवं शास्त्रों में निष्णात की भाँति अपने आप को चोटी का विद्वान् समझ कर सिद्धान्तभवन टिका हुआ है जिस पर उसी का खण्डन करते देर नहीं करते ! जिन कार्यों से उस पर चलकाहट लाई जाती है उन्हीं को वे अयोग्य समझते हैं ! हो सकता है बहुत समय के हो जाने पर कचरा लग जाय उस पर ! परन्तु उस का अर्थ यह नहीं होता कि हम बिना सोचे समझे ही कचरे को स्वच्छ करने का दूर रखकर उस के मूल को ही ऊखाड कर फेंक दें ! आधुनिक युग से प्रभावित होकर कितने ही अज्ञ अपने आप मनमानी बातों का अपलाप कर के भोले जनों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं । वास्तव में ऐसा कहना एवं प्रचार करना शुभ न होकर हानिकर ही होता है ! " हमारे यहाँ साहित्य की कभी नहीं है, हमारे ज्ञानागार उस से सुशोभित हैं, जिन के लगे हुए ताले वर्षभर में एकाध वक्त ही खुलते हैं, उन्हें पढनेवाला कोई नहीं हैं, उन की सारसम्हाल करने वाला भी कोई नहीं ! अरे ! उन शास्त्रों में क्या लिखा है ? इस बात को समझनेवाले प्रतिशत दो चार व्यक्ति ही निकलेंगें ! अतः अब अधिक साहित्य छपाकर आशातना दोष के भागी नहीं बनना चाहिए ! जब दूसरी ओर यह भी सुनाई देता है कि हमारे ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत भाषा में ही बने हुए हैं, हम उनको समझ नहीं सकते, हमारे विद्वान् मुनिवरों एवं लेखकों को चाहिये कि वे ऐसे ही साहित्य का निर्माण करें जो कि वर्तमान प्रणाली का अनुसरण करनेवाला हो, जिससे मानवमात्र हमारे दृष्टिकोणों को समझ सके ! " Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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