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________________ प्रवृत्ति और निवृत्ति लेखक - मुनिविद्याविजय 'पथिक' किसी भी योनिमें जीव पुण्य-कणों का संग्रह करता है । उन शुभ कणों के शुभ योग से मनुष्य अवतार को प्राप्त करता है । जिस समय में जीव एक योनी से दूसरी योनी में जाता है तब यह तेजस और कारमण शरीर अपने साथ ले जाता है । स्त्री-पुरुष के संयोग के पश्चात् ही जीवकी उप्तत्ति हो जाती है। वह रजवीर्य का आहार करता है, शुभ पुगल और अशुभ पुद्गल का शरीर धारण करता है, इन्द्रियों के अवयव पल्वित होते हैं । उसके बाद श्वासोश्वास लेने की शक्ति प्राप्त करता है । बादमें भाषा बोलने की शक्ति और अन्त में मन की शक्ति तैयार होती है । इनमें से दश प्राण प्रगट होते हैं-रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोतेन्द्रिय, मन बल, वचन बल, काय बल, श्वासोश्वास और आयु इन दश को प्राण कहते हैं । इनके आधार से शरीर रहता है और शरीर पुण्य--पाप रूप प्रकृति के आधार से रहता है । इन दश प्राणों पर जीव को ममता होती है-इस से सुख-दुःख का अनुभव जीव करता है । जब जीव प्रवृतिमार्ग को ग्रहण करता है तब वह जीव शुभ प्रवृत्ति अथवा अशुभ प्रवृत्ति से नये कर्मों का संचय करता रहता है। जीव की प्रकृत्ति के संचालक मन, वचन और काया हैं-मन से करना, करवाना और अनुमोदना, वचन से करना, करवाना व अनुमोदना, काया से करना, करवाना और अनुमोदना । शुभ अशुभ इन दो पटरियों पर मनुष्य चलता फिरता है । शुभ प्रवृत्ति में जब शुभ प्रकृत्ति होती है तब जीव को शुभ योग का उदय होता है-धर्मानुष्ठानों के नियमों का पालन करना, आत्म ज्ञान में रमण करना, जिनेश्वर भगवन्त की श्रद्धा में अटल रहना, पूर्वाचार्यों की आज्ञा का पालन करना, आगमों के वाक्यों का मनन करना, ज्ञान दर्शन और चारित्र की प्राप्ति के लिये हर समय में सद्भावना को भाना । इस शुभ प्रवृत्ति से आत्मा के गुण प्रगट होते हैं, कर्म की निर्जरा होती है । झाना वर्णीय, दर्शनावर्णीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य नाम गोत्र और अन्तराय इन अष्ट कर्मों की निर्जरा करने के लिये सूत्रकारों ने सामायिक, प्रतिक्रमण क्रिया का उल्लेख किया है-'प्रतिक्रमण'-किये हुए पापों को स्मरण करके फिर उन पापों की ओर से मन, वचन और काया को सर्वथा रोकना । आलोचना करने के लिये जो सूत्र बने हुए हैं, उन सूत्रों के अर्थ का मनन करते हुए। खामेमि सव्व जीवे सव्वे जीवा खमंतुमे । मित्ति मे सव्व भूए सु वेरै मज्झं न केणई ॥ इस गाथा का पाठ वारंवार स्मरण करने की प्रवृत्ति को प्रमाद रहित करना चाहिये। इस भव में, पर भव में राग द्वेष के वश मैंने किसी भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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