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________________ विषय खंड अहिंसा का आदर्श २९ ___ लोग कहते- 'सिकन्दर ने विश्व विजय का स्वप्न देखा था और नेपोलिय ने एक से अधिक युद्धों में अपना अपार साहस प्रकट किया था पर क्या इन्होंने अपने लिये भी जीता था ? यदि नहीं तो ये विश्व विजेता अपने आप ही मुंह की खा रहे । अपने लिये जीतने की बात तो दृढ़ता से अहिंसा के अनुयायी ही कह सकते हैं, क्यों कि अहिंसा का तो यथार्थ अर्थ ही राग-द्वेष, लोभ-क्रोध, मोह-शोक जैसी विविध मनोवृत्तियों पर विजय पाना है, और हिंसा-अहिंसा का प्रश्न तो मनोभावना पर वैसे ही आश्रित है, जैसे अर्थ शास्त्रीय दृष्टि से एक ही वस्तु एक व्यक्ति को अनुपयोगी पर अन्य को आवश्यक हो सकती है । अतः हम यहाँ सतर्क रहें ।। यों तो अनेक जैन आचार्योंने, गृहस्थों और मुनिजनों के अनुरूप अहिंसा का विशद विवेचन किया है पर मुझ मन्द मति की दृष्टि में 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' के प्रणेता अमृतचन्द्र आचार्य इस दिशा में अपेक्षा कृत आगे हैं। उन्होंने गृहस्थ जीवन की असविधाओं को विचार के धरातल में रखते हये अहिंसा की विरोधी हिंसा के चार भेद किये है :-(१) संकल्पी (२) आरम्भी (३) विरोधी (४) उद्योगी । इन हिंसाओं को संक्षेप में यों समझा जा सकेगा । प्राण हरण के उद्देश्य से की गई हिंसा संकल्पी है । जैसे शिकार खेलना, मांस खाना और जान बूझ किसी को गाली देना । जैन अनुयायी को चाहिये कि वह इससे बचे और प्रयत्न करके वह चाहे तो बच भी सकता है । पर शत्रु से अपने को बचाने के लिये जो हिंसा होती है, वह विरोधी है । जैसे चोर-डाकुओं या आक्रमण कारियों से मुठभेड हो जाने पर उनके या अपने प्राण जाना । यद्यपि यह जैन जन को विवश होकर करना पड़ता है तथापि जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक इसे टाल दे। जीवन-निर्वाहके लिये, परिवार के उचित भरण-पोषण के लिये प्रयत्न करने में जो हिंसा होती है वह आरम्भी है, और गृहस्थ अपने लिये इससे बच नहीं सकता, अगर बचने की चेष्टा करेगा तो लोक में निन्दा का पात्र होगा पर फिर जहाँ तक सम्भव हो वह आरम्भ कम ही करे क्यों कि जितना कम आरम्भ होगा, वह उतना ही अधिक निश्चिंत और अहिंसक हो सकेगा। जीवन - कार्य करने में, आजीविका के व्यापार में जो हिंसा होती है, वह उद्योगी है, जैसे खेती करना, व्यापार करना, लिपिक या शिक्षक अथवा सम्पादक बनना। इससे गृहस्थ अपने लिये बव नहीं सकता तथापि वह 'सांप मरे और लाठी न टे' वाली कहावत चरितार्थ करने यत्न शील रहे । अपने पेट की पूर्ति के लिये दूसरे के हृदय को लात न मारे क्यों कि शरीर में पेट से हृदय ऊपर है और हृदय काँच या दर्पण के समान है, अत एव उसकी रक्षा बड़े कौशल से करे । प्रकारान्तर से कहा जा सकेगा कि हृदय की रक्षा भी अहिंसा का पालन है। एक बात और भी है । वह यह कि हिंसा करना और हिंसा हो जाना, इन दोनों में बड़ा अन्तर है । एक में आदमी असावधान है और दुसरे में अनजान । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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