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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध बतलाये गये हैं।" १ जैनधर्म की अहिंसा सिखाती है, प्राणों का संकट आनेपर भी दूसरों के प्राण लेकर अपने प्राण न बचाओ बल्कि दूसरों के प्राण बचाने के लिये अपने प्राण दे दो। इसी कारण जैनजन अत्यधिक दया-प्रिय हैं और उनकी दयालुता की प्रशंसा भी एक से अधिक इतिहासकारों तक को करनी पड़ी है । ___अपने समकालीन भारतीय राष्ट्र के जनक युगपुरुष महात्मा गांधी ने भी अहिंसा के विषयमें अनेक बातें कहीं और वे बार बार ईसामसीह के इस सिद्धान्त को दुहराते थे-'यदि कोई तुम्हारे बायें गालपर थप्पड मारे तो तुम दाया भी उसके सामने उपस्थितकर दो।' पर इसका निर्वाह गांधीजी अपने जीवनमें पूर्णतया कर सके, ऐसा नहीं कहा जा सकता पर इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधीजीने धार्मिक अहिंसाका राजनैतिक जीवन में जो प्रयोग किया और अभूतपूर्व स्वराज्य जैसी सफलता पाई, वह विश्वके इतिहासमें बेजोड है पर बापू गाय के बछडे की हत्या करा कर, बन्दरोंको मारने की आज्ञा देकर पूर्णतया अहिंसक नहीं है, यह तो कहना ही पडेगा। अपने इस अल्प अध्ययन और अनुभव के बाद यदि मैं कहूं कि ईसामसीहकी अहिंसा में मा का हृदय है, और कनफ्यूशियस की अहिंसा में तो हिंसाकी रोक-थाम मात्र है तथा बुद्ध की अहिंसा तो उनके धर्म की भाँति मध्यममार्ग की अनुगामिनी है, एवं हिन्दू धर्मकी अहिंसा तो हिंसा को भी साथ लेकर चली है और महात्मागांधीकी अहिंसा जितनी राजनैतिक है उतनी धार्मिक नहीं, पर भगवान महावीर की अहिंसा में उस विराट पिता का हृदय है जो सुमेरु सा सुदृढ़ कठोर कर्तव्य लिये है । इस विषय में एक बात और भी मैं स्पष्टतया कह देना चाहूंगा कि इस अहिंसा की तुलना के अर्थका कोई अनर्थ न करे और यह कदापि नहीं समझे कि पूर्वोक्त धर्मों या महापुरुषोंने अहिंसा के प्रचारमें योग-दान नहीं दिया, प्रत्युत यह समझे कि प्रत्येक महापुरुष के समक्ष उसकी स्वयंकी और देश-कालकी जो परिस्थितियां रहीं, उनको देखते हुए उनके ही अनुयायियों के शब्दोंमें उन्होंने पर्याप्त परिश्रम अहिंसाके प्रसारके लिये किया पर ऐसा प्रयत्न करनेवाले धर्मों या महापुरुषों में मेरे लेखे भगवान महावीर या उनके द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म सबसे आगे है । अहिंसा के भेदों पर एक विहंगम दृष्टि 'अहिंसा का अर्थ कर्त्तव्य-पालन है ।' ऐसा जैन धर्म के एक से अधिक ग्रन्थोंके अध्ययन और अनुभव, मनन और चिन्तन से विदित होता है । जैनजनों के दृष्टिकोण से पूर्णतया अहिंसा का पालन मुनि या साधु करते हैं और अपूर्णतया उनके अनुयायी श्रावक अथवा गृहस्थ करते हैं, पर श्रावक धर्मकी अपूर्ण अहिंसा भी मुनियोंकी पूर्ण अहिंसाकी ओर उन्मुख है । दूसरे शब्दोंमें जो अणुव्रत हैं, वे महावतों की ओर बढनेके लिये प्रारम्भिक प्रयत्न हैं । १ एक्कं चिय एत्थ वयं निद्दिष्ठं जिणवरेहिं सव्वेहिं । पागाइबायविरमण मवसेसातस्स खरवडा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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