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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध - NRmepage उसका पाप । तपजप के कारण क्षीण होकर इतना मिला ।" ऐसी भवपरंपराकी सत्ता क्षणिकवाद में संभवित नहीं। अतः क्षणिकवाद ही अव्यवस्थावाद है और दार्शनिक क्षेत्र में यह अनुपयोगी है इसकी अनुपयोगितासिद्ध होनेसे । जब क्षणिकवाद अनुपयोगी सिद्ध हो चुका तो नित्यवाद कब तक पृथ्वी पर अपना आडम्बरमय नाटक दिखानेको समर्थ होसकता है ? स्याद्वाद के सामने यह हस्तिके सामने चींटिकावत् है । एकान्त नित्यवाद भी दोषोसे अछूता नहीं हैं। नित्य वही कहलाता है जो समर्थ है और समर्थ समय या अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखता। अपेक्षा रखना असमर्थ का लक्षण है। कहा है सापेक्षमसमर्थम् । समर्थ जब किसी की अपेक्षा ही नहीं रखता तो काल कारण आदि की उपेक्षा कर सम्पूर्ण कार्य एक क्षण में कर डालेगा । क्यों कि समर्थ कम से कार्य नहीं करता । जब एक ही क्षण में सम्पूर्ण कार्य को कर डालेगा तो दूसरे क्षण में करने को कुछ वाकी ही नहीं रहेगा। क्यों कि समर्थस्य कालक्षपं न योग्यं । जब इस न्याय से कार्य ही दूसरे क्षण के लिये नहीं बचा तो वस्तु अर्थक्रिया शून्य होगी । अर्थक्रियाशून्य होना वस्तु का लक्षण नहीं । कहा है - अर्थक्रियाहीनमवस्तुः । अर्थक्रिया रहित जो होता है। वह अवस्तु होता है । जब अवस्तुता प्राप्त हुई वस्तु को तो सारा विश्व ही नहीं रहेगा। सारा अस्त हुआ तो पुण्य-पाप, सुख-दुःख, बंध मोक्ष नहीं हो सकते। नित्य है वह अपरिवर्तनीय है। सुख और दुःख एक दूसरे विरोधि । और विरोधिमाव एक रुपसे हो नहीं सकते । जिस रूप से मानव सुख का वेदन करता है उसी स्वभाव से दुःख का वेदन नहीं कर सकता और जिस स्वभाव से दुःख का वेदन करता है सुख का वेदन नहीं कर सकता । इसी प्रकार पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म एक भाव में हो नहीं सकते । पुण्य जिन विचारोंसे मामव करता है. पाप उन विचारों में हो नहीं सकता । जिन कर्तव्यों से धर्म होता है अधर्म उन कर्तव्यों से हो नहीं सकता। और तो क्या? पुण्य जिन भावों में उपार्जित करे उसका फल भी उसी भावों को नहीं भोगा जा सकता । पुण्य कठिनता से उपार्जित किया जाता है भोगनेके लिए सरलता होती है। तो काठिन्यता और सरलता दोनों विरोधि हैं । एक भाव कैसे पाये जा सकते हैं ? परिवर्तन अवश्यभावी है। दिन भी बनता है और रात भी बनती है। सारा संसार परिवर्तनमय है। परिवर्तन को माने विना मार्ग नहीं । पदार्थों के नित्य मानने पर निक्रिया परिवर्तन का अभाव होगा । और परिवर्तन न होने पर कारणों का प्रयोग करना निरर्थक सिद्ध होगा । जब कारण निरर्थक होगें तो कारणों के अभाव में कार्य ही नहीं होंगे। एक नित्य सिद्धान्त मानने पर अर्थक्रिया का लोप हो जायगा । जब अर्थ क्रियाएं ही नहीं होगी तो भला बंध और मोक्ष तो हो ही कैसे सकता है। - मोक्ष का अर्थ है छूटना । जब बंध से छूटेगा तो बंध अवस्था से छूटने की अवस्था दूसरी होगी तो परिवर्तन कहलायगा और परिवर्तन होना अनित्य का लक्षण है । जब मोक्ष ही नहीं होगा तो बंध ही क्या ? संसार के सभी शब्द एक दूसरे की अपेक्षावाला है। जैसे सुख-दुःख, धर्म-अधर्म, इसी प्रकार मोक्ष भी अपेक्षा युक्त है और बंध की अपेक्षा रखता हैं। और बंध शब्द मोक्ष की अपेक्षा रखता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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