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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध दार्शनिक क्षेत्रमें स्याद्वादकी उपयोगिता विश्व की किसी भी वस्तुको लीजिए । विना स्याद्वाद के वस्तु का निर्णय हो ही नहीं सकता । मान लीजिए यदि आप अस्ति को ही मानते रहे या नित्य को ही तो एक कदम भी पृथ्वीपर नहीं चल सकते । यदि वस्तु एकान्त नित्य बन जाय तो भी सत्य नहीं हो सकता या एकान्त अनित्य हो जाय तो भी सत्य नहीं। प्रथम अस्ति ही को क्यों न लें ? अस्तिसे यदि पदार्थ सर्वथा अस्तिरूप होगा तो वह पदार्थ अन्य पदार्थो के रूपका भी होजायगा और उसी एक पदार्थ से संसार के समस्त कार्यकलाप बनने चाहिएँ, किन्तु देखते यह है कि सभी प्रथा २ पदार्थों की आवश्यकता समय समय पर होती हैं। अतः वह पदार्थ पररूपसे कभी अस्तिरूप नहीं हो सकता वैसी वह पररूपसे नास्ति के समान स्वरूपसे नास्ति हो नहीं सकता अन्यथा सारा संसार ही लुप्त हो जायगा। जब वस्तु स्वयंही स्वरुप नहीं होगी तो संसार में रहेगा ही क्या ? ऐसा होनेसे भी एकान्त अनिर्वचनीय वस्तुका स्वरुप नहीं है । वरन् वह दूसरों के ज्ञान कराने में ही असमर्थ होगी। शान अन्य को शब्दद्वारा ही करवाया जाता है और जब शब्दोंसे वचनीय न हो तो अनिर्वचनीय रूप शब्दका उच्चारण ही कैसे हो सकेगा? इसी प्रकार वस्तु यदि एकान्त नित्य है तो परिवर्तन एकान्त नित्य में असंभव हैं। किन्तु यह बात अनुभवविरुद्ध है । प्रत्येक पदार्थोका परिवर्तन दृष्टिगोचर है । एक ही स्वर्ण प्रथम कुण्डलरूप होता है तो फिर कंकणरूप की पर्याय में ढल जाता है। यहाँ पर्यायरूप से कुण्डल का कंकण रूप में संक्रमण हो गया है। वैशेषिक नित्य का लक्षण करते है। अप्रच्युतानुत्पन्नस्थित्वेलक्षणो नित्य उत्पाद विनाश नित्य का लक्षण ही नही मानते तो यहाँ कंकण पर्यायकी उत्पत्ति का नाश प्रत्यक्षसिद्ध का अपलाप नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार एकान्त अनित्य पक्ष भी अनुचित है। बौद्ध तार्किक वस्तु का लक्षण करते हैं -“सर्व क्षणिकं स्याद् उदाहरण भी देते हैं बहते नदी का और दीपककी लॉ का कि ये सभी क्षणिक है -क्षण क्षण में होते हैं और क्षण क्षण में ही नाश हो जाते हैं । परंतु दीर्घ दृष्टिसे सोचने पर यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। पानी दुसरे स्थान चला जाता है अथवा दूसरे रूप में बदल जाता है। जैसे दिनमें वही रात्रि का धनांधकार सूर्यकिरणों से प्रकाश रूप धारण करलेता है और पुनः रात्रि को अंधकाररूप में किन्तु वस्तुका विनाश नहीं होता है। यदि संसार की प्रत्येक वस्तु ही विमाशी हो तो कार्य कारणभावही नहीं घट सकता।कारण कार्य को उत्पन्न करने के पहले ही नष्ट होजायगा।कार्य भी इसी प्रकार नहीं होजायगा या कारण के अभाव में कार्य ही उत्पन्न न होगा । यदि हो तो सभी कारणों से कार्य उत्पन्न होने लगेगें। मिट्टी से पट और तन्तु से घट किन्तु यह अनुभव से असिद्ध है। मिट्टी रूप कारण से घट ही और तन्तुरूपकारण से पट ही उत्पन्न होता है न कि पट घट । यदि क्षणिकवाद माने तो अनेक दोष उत्पन्न होंगे। कृतप्रणाश, अकृतकमभोग, स्मृतिभंग इत्यादि । कारण संसार के समस्त पदार्थ नित्यानित्य स्वरूप हैं । आचार्य हेमचन्द्रजी अपनी अन्ययोगव्यच्छेदिकामें कहते हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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