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________________ मोस्को में विश्व-शान्ति-परिषद् विश्व-समस्या और व्रत-विचार स्व० प्रोफेसर बेणीप्रसाद एम. ए., पी-एच-डी., डी. एस-सी. (लंदन) प्रोफेसर-राजनीतिशास्त्र, इलाहाबाद युनिवर्सिटी जैनधर्म के प्रतिनिधि श्री शान्तिभाई शेठ धर्म की परिभाषा संविभाग बताये गये हैं। एक दूसरी दृष्टि से धर्म-भाव के दस धर्म की व्याख्या विविध प्रकार से की गई है, परंतु मनो- लक्षणों-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम वैज्ञानिक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि व्यक्ति का समष्टि से शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, तथा आधारभूत आध्यात्मिक तत्त्वों से मेल ही धर्म है। अतएव उत्तम आकिंचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य पर बल दिया गया है। धर्म में एक ओर तो जीव और अजीव का और उनके परस्पर यदि हम यहाँ सभी व्रतों, अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाव्रत तथा धर्म सम्बन्धों का विचार रहता है, और दूसरी ओर मनुष्य जिस के दस लक्षणों की चर्चा करने लगेंगे तो लेख का कलेवर बहत रीति से अपने स्वरूप का बोध तथा अपनी अभिव्यक्ति करता बढ़ जाएगा। अतएव हम यहाँ पर सामाजिक सम्बन्ध, वर्तन है, उसका निरूपण रहता है । इस दूसरी विचार-दृष्टि से हम तथा संगठन की दृष्टि से जैन आचारशास्त्रके पाँच मुख्य व्रतोंयह देखने का यत्न करेंगे कि धर्म में किन-किन सिद्धान्तों का अणुव्रतों की चर्चा करेंगे। हमारे प्राचीन मनीषियों की दृष्टि समावेश है, जिन्हें समग्र मनुष्य-जाति अपने विस्तृत अनुभव कितनी पैनी थी, इसका प्रमाण इससे बढ़ कर और क्या हो से संसार के लिये कल्याणकारी मानने लगी है। दूसरे शब्दों सकता है कि उन्होंने उच्च जीवन के लिये सबसे पहला तथा में हम यह देखने का यत्न करेंगे कि धर्म में कहाँ तक सामा- उत्कृष्ट सिद्धांत 'अहिंसा' माना है। जिक न्याय, हित तथा सुख के तत्त्वों का समावेश है? सामाजिक सम्बन्धों में हिंसा का स्थान जैन आचार-नीति अभी मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों का नियमन,यदि सर्वांइस सामाजिक विचार-दृष्टि से हम संक्षेप में जैन आचार- शत: नहीं तो अधिकांशतः पाशविक बलप्रयोग (हिंसा)से होता शास्त्र का सिंहावलोकन करेंगे। संक्षेप में उसमें पाँच व्रतों, आया है, अर्थात् व्यक्ति, दल, वर्ग, राष्ट्र अथवा जातियाँ अपने अणुव्रतों का विधान है—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा श्रेष्ठ बल का प्रयोग करके ही दूसरे का शोषण करती रहीं, अपरिग्रह । इन अणुव्रतों का मूल्य बढ़ानेवाले तीन गुणव्रत- उन्हें अपने अधीन रखती रहीं तथा अपने स्वार्थ-साधन के लिये दिग्विरति, भोगोपभोग-परिमाण, अनर्थदंडविरति, तथा चार उनका उपयोग करती रही हैं। फलतः व्यक्ति के व्यक्तित्व शिक्षाव्रत-सामायिक, देशविरति, पौषधोपवास, तथा अतिथि- का, मनुष्य की मर्यादा का कोई मूल्य नहीं रह गया है। दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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