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________________ ही संस्था का मुख्य उद्देश्य रहा है। यही कारण है कि इस संस्था में सभी जैन सम्प्रदाय के ही नहीं अपितु जैनविद्या के जिज्ञासु जनेतर शोधछात्रों को भी असाम्प्रदायिक दृष्टि से छात्रवृत्ति निवास आदि सभी सुविधाएँ समान रूप से प्रदान की जाती हैं । यही इस संस्था की महान् उपलब्धि और विशेषता है। इस विशेषता के मुख्य कारणभूत हैंस्व. प्रज्ञाच सुखलालजी, स्व० बहुश्रुत पं० बेचरदासजी और विद्वरेण्य पं. दलसुखभाई मालवणिया की असाम्प्रदायिक अनेकान्तदृष्टि और संचालक समिति की मात्र जैनविद्या के विकास के प्रति सन्निष्ठा और जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार की उदार मनोवृत्ति । यह संस्था हिन्दू विश्वविद्यालय के सन्निकट और मान्यताप्राप्त है। अभी तक प्रायः ३० शोधछात्र जैनविया क्षेत्र में पी-एच० डी० हो गये हैं—यह इस संस्था की अभूतपूर्व सिद्धि है । तदुपरांत यह संस्था शास्त्री और आचार्य कक्षा के छात्रों को भी आर्थिक और अन्य सहायता प्रदान करती है । इस तरह इस संस्था ने अपने कार्यकलापों से अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त की है जो समग्र जैन समाज के लिए गौरव और संतोष का विषय है । इस संस्था में विद्या के सभी विषयों के संदर्भ-ग्रन्थों का एक विशाल समृद्ध पुस्तकालय है । वहाँ कार्यनिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं काफी बड़ा स्थान है और सुविधाजनक छात्रालय, अतिथिगृह आदि निवास स्थान हैं। वाराणसी विद्याधाम होने से इस संस्था में विद्या का विशुद्ध और अनुकूल वातावरण है । डॉ० सागरमलजी जैन जैसे सुयोग्य धर्मनिष्ठ निदेशक हैं। पं० दलसुखभाई जैसे मार्गदर्शक हैं और श्री भूपेन्द्रनाथ जैन (सुप्रसिद्ध शिक्षाप्रेमी लाला हरजसरायजी के सुपुत्र) जैसे कर्मठ और दृष्टिसम्पन्न मंत्री हैं। जैन समाज की सुप्रसिद्ध इस संस्था का सक्रिय सहयोग । प्राप्त हो तो यहाँ पर 'जैन ट्रेनिंग कॉलेज' (जैन प्रशिक्षणसंस्थान ) स्थापित किया जाय और हमारी कॉन्फ्रेंस इस समाजोपयोगी संस्था के निर्माण में अग्रगामी बने तो समाज में जैन विद्या के निष्णातों और सेवानिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं की जो बड़ी कमी है उसकी आंशिक पूर्ति हो सकेगी। मेरा जीवन-निर्माण भी श्री अ० भा० श्वे० स्था० जैन कॉन्फेंस द्वारा संचालित ऐसी संस्था से ही हुआ है अतः ऐसी ही जैन ट्रेनिंग कॉलेज- संस्था का पुनर्निर्माण कॉन्फ्रेंस द्वारा संभव हो - ऐसी भावना हृदय में पैदा होना स्वाभाविक है । अन्त में, उक्त दोनों योजनाओं को सफल करने में समाज का तन-मन-धन का सक्रिय सहयोग प्राप्त होगा - ऐसा मेरा विश्वास है । इस विश्वास के आधार पर ही मैंने अपने अमृतोत्सव मनाने की स्वीकृति संकोचपूर्वक दी है। सुशेषु किं बहुना ! भवदीय, शान्तिलाल वनमाली शेठ विपुलाचल (राजगृही) पर से वैभारगिरि के जैन मंदिर का दर्शन करते हुए श्री शान्तिभाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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